गोस्वामी तुलसी दास जी
क्रम: 3⃣
श्री तुलसीदास जी का विवाह :
कार्तिक की द्वितीया के दिन भारद्वाज गोत्र का एक ब्राह्मण वहाँ सकुटुम्ब यमुना स्नान करने आया था । कथा बांचने के समय उसने तुलसीदास जी को देखा और मन-ही-मन मुग्ध होकर कुछ दूसरा ही संकल्प करने लगा । उसको अपनी कन्या का विवाह गोस्वामी जी के साथ ही करवाना था । गाँव के लोगो से गोस्वामी जी की जाति- पाँति पूछ ली और अपने घर लौट गया ।
वह वैशाख महीने में दूसरी बार आया । तुलसीदास जी से उसने बडा आग्रह किया कि आप मेरी कन्या स्वीकार करें । पहले तो तुलसीदासजी ने स्पष्ट नही कर दी, परंतु जब उसने अनशन कर दिया, धरना देकर बैठ गया, तब उन्होने स्वीकार कर लिया । संवत १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरूवार की आधी रात को विवाह संपन्न हुआ । अपनी नवविवाहिता वधू को लेकर तुलसीदासजी अपने ग्राम राजपुर आ गये ।
पत्नी से वैराग्य की शिक्षा :
एक बार जब उसने अपने पीहर जाने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अनुमति नहीं दी । वर्षो बीतनेपर एक दिन वह अपने भाई के साथ मायके चली गयी । जब तुलसीदास जी बाहर से आये और उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी मायके चली गयी, तो वे भी चल पडे । रात का समय था, किसी प्रकार नदी पार करके जब ये ससुराल मे पहुंचे तब सब लोग किवाड़ बंद करके सो गथे थे । तुलसीदास जी ने आवाज दी, उनकी पत्नी ने आवाज पहचानकर किवाड़ खोल दिये । उसने कहा की प्रेम में तुम इतने अंधे हो गये थे किं अंधेरी रात को भी सुधि नहीं रही, धन्य हो ! तुम्हारा मेरे इस हाड मांस के शरीर से जितना मोह हैं, उसका आधा भी यदि भगवान् से होता तो इस भयंकर संसार से तुम्हारी मुक्ति हो जाती –
हाड मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
तिमु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भव भीति ।।
फिर क्या था, वे एक क्षण भी न रुके, वहाँ से चल पडे । उन्हें अपने गुरु के वचन याद हो आये, वे मन-ही-मन उसका जप करने लगे –
नरहरि कंचन कामिनी, रहिये इनते दूर ।
जो चाहिय कल्याण निज, राम दरस भरपूर ।।
जब उनकी पत्नी के भाई को मालूम हुआ तब वह उनके पीछे दौडा, परंतु बहुत मनानेपर भी वे लौटे नहीं, फिर वह घर लौट आया । तुलसीदास जी ससुराल से चलकर प्रयाग आये । वहाँ गृहस्थ वेष छोडकर साधु-वेष धारण किया । फिर अयोध्यापुरी, रामेश्वर, द्वारका, बदरीनारायण , मानसरोवर आदि स्थानों में तीर्थाटन करते हुए काशी पहुंचे । मानसरोवर के पास उन्हें अनेक संतो के दर्शन हुए, काकभुशुण्डिजी से मिले और कैंलास की प्रदक्षिणा भी की । इस प्रकार अपनी ससुराल से चलकर तीर्थ-यात्रा करते हुए काशी पहुँच ने मे उन्हें पर्याप्त समय लग गया ।
क्रमशः अगले क्रम: में.....
क्रम: 3⃣
श्री तुलसीदास जी का विवाह :
कार्तिक की द्वितीया के दिन भारद्वाज गोत्र का एक ब्राह्मण वहाँ सकुटुम्ब यमुना स्नान करने आया था । कथा बांचने के समय उसने तुलसीदास जी को देखा और मन-ही-मन मुग्ध होकर कुछ दूसरा ही संकल्प करने लगा । उसको अपनी कन्या का विवाह गोस्वामी जी के साथ ही करवाना था । गाँव के लोगो से गोस्वामी जी की जाति- पाँति पूछ ली और अपने घर लौट गया ।
वह वैशाख महीने में दूसरी बार आया । तुलसीदास जी से उसने बडा आग्रह किया कि आप मेरी कन्या स्वीकार करें । पहले तो तुलसीदासजी ने स्पष्ट नही कर दी, परंतु जब उसने अनशन कर दिया, धरना देकर बैठ गया, तब उन्होने स्वीकार कर लिया । संवत १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरूवार की आधी रात को विवाह संपन्न हुआ । अपनी नवविवाहिता वधू को लेकर तुलसीदासजी अपने ग्राम राजपुर आ गये ।
पत्नी से वैराग्य की शिक्षा :
एक बार जब उसने अपने पीहर जाने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अनुमति नहीं दी । वर्षो बीतनेपर एक दिन वह अपने भाई के साथ मायके चली गयी । जब तुलसीदास जी बाहर से आये और उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी मायके चली गयी, तो वे भी चल पडे । रात का समय था, किसी प्रकार नदी पार करके जब ये ससुराल मे पहुंचे तब सब लोग किवाड़ बंद करके सो गथे थे । तुलसीदास जी ने आवाज दी, उनकी पत्नी ने आवाज पहचानकर किवाड़ खोल दिये । उसने कहा की प्रेम में तुम इतने अंधे हो गये थे किं अंधेरी रात को भी सुधि नहीं रही, धन्य हो ! तुम्हारा मेरे इस हाड मांस के शरीर से जितना मोह हैं, उसका आधा भी यदि भगवान् से होता तो इस भयंकर संसार से तुम्हारी मुक्ति हो जाती –
हाड मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
तिमु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भव भीति ।।
फिर क्या था, वे एक क्षण भी न रुके, वहाँ से चल पडे । उन्हें अपने गुरु के वचन याद हो आये, वे मन-ही-मन उसका जप करने लगे –
नरहरि कंचन कामिनी, रहिये इनते दूर ।
जो चाहिय कल्याण निज, राम दरस भरपूर ।।
जब उनकी पत्नी के भाई को मालूम हुआ तब वह उनके पीछे दौडा, परंतु बहुत मनानेपर भी वे लौटे नहीं, फिर वह घर लौट आया । तुलसीदास जी ससुराल से चलकर प्रयाग आये । वहाँ गृहस्थ वेष छोडकर साधु-वेष धारण किया । फिर अयोध्यापुरी, रामेश्वर, द्वारका, बदरीनारायण , मानसरोवर आदि स्थानों में तीर्थाटन करते हुए काशी पहुंचे । मानसरोवर के पास उन्हें अनेक संतो के दर्शन हुए, काकभुशुण्डिजी से मिले और कैंलास की प्रदक्षिणा भी की । इस प्रकार अपनी ससुराल से चलकर तीर्थ-यात्रा करते हुए काशी पहुँच ने मे उन्हें पर्याप्त समय लग गया ।
क्रमशः अगले क्रम: में.....
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