Wednesday, July 18, 2018

#श्रीकृष्ण_लीला_का_चिन्तन

कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार...(6)

यशोदा नन्दन की क्रन्दन ध्वनि पाक शाला में जा पहुँचती है, मैया रोहिणी दौड़ पड़ी, पर उनके आने के पूर्व जननी यशोदा भरी कलसी लिये आ पहुँचती हैं।

बालक को रोता देखकर गोद में उठा लेती हैं, उसे हृदय से लगाये जननी बार-बार फूटे भाण्ड, बिखरे दही एवं दही से चुपड़े हुए ब्राह्मण के मुख की ओर देखती हैं।

वे सोचती हैं:- ब्राह्मण ने यह कुकृत्य क्यों किया? नहीं, नहीं, यह ब्राह्मण नहीं।
ब्राह्मण के द्वारा ऐसे कर्म कदापि सम्भव नहीं, यह निश्चय ही कोई राक्षस है।

फिर भी संदेह मिटाने के लिये ब्राह्मण से पूछती हैं, बार-बार सत्य-सत्य बताने के लिये आग्रह करती हैं; किंतु:- "बाँभन के मुख बात न आवै, जीभ होइ तौ कहि समुझावै।"

देखते-ही-देखते गोपांगनाओं की भीड़ नन्द प्रांगण में एकत्र हो जाती है, इतने में व्रजेन्द्र भी गोष्ठ से आ पहुँचते हैं।

सारी बात जानकर उपनन्द से परामर्श करते हैं और यह निश्चय होता है:- कोई भी हो, इसे घर से बाहर हटा देने में ही मंगल है।
तदनुसार गूँगे श्रीधर को गोपगण व्रजपुर की सीमा के बाहर छोड़ आते हैं।

व्रजेन्द्र नन्दन के एक हस्त-परिमित श्याम शरीर में अभी-अभी कुछ क्षण पहले श्रीधर को शिक्षा देने के लिये जो ऐश्वर्य का प्रकाश हुआ है, इसकी गन्ध तक व्रजवासी न पा सके, व्रजरानी तो पातीं ही कैसे?

उनके वात्सल्य पूरित हृदय में तो ऐसे ऐश्वर्य की छाया तक के प्रविष्ट होने का अवकाश नहीं है।
वे क्षणों में ही इस घटना तक को भूल गयीं, भूल कर पुत्र से लाड़ लड़ाने में संलग्न हो गयीं।

कभी स्तनपान कराती हैं तो कभी घन-घन मुख-चुम्बन का दान दे कर शिशु रूपधारी गोलोक-विहारी के वात्सल्य-रसास्वाद की चिरवर्धनशील लालसा में नूतन रंग घोल देती हैं।

कभी कुञ्चित-घनकृष्ण-केशमण्डित मुख को निहारती रह जाती हैं, तो कभी पुत्र के समस्त अंगों को निस्सृत अद्भुत अनुपम सौरभ का आघ्राण पा कर आत्म विस्मृत हो जाती हैं।

प्रत्येक दो घड़ी पर शय्या के आच्छादन-वस्त्र को, शिशु के अंगावरक वस्त्र को बदल देती हैं।

इस क्रिया में लीलाविहारी किंचित् रोने लग जाते हैं, पर यह क्रन्दन भी इतना मधुर होता है, मानों किसी अभिनव वीणा की मधुराति मधुर स्वर झंकृति हो; यशोदा के कर्ण पुटों में अमृत-निर्झर झरने लग जाता है।

देखते-देखते आज का दिन समाप्त हो जाता है, संध्या आ जाती है।
प्रतिदिन की तरह आज भी व्रजरानी स्तन-पान से तृप्त हुए पुत्र को पालने में लिटाकर मन्द-मन्द झुलाती हुई लोरी देने लग जाती हैं:-

जसोदा हरि पालनें झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोई कछु गावै॥

मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहें न आनि सुवावै।
तू काहें न वेगि-सी आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कें, रहि करि-करि सैन बतावै॥

इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरें गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुर्लभ, सो नँदभामिनी पावै ।।

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