*‼🌸स्थूल से सूक्ष्म की ओर🌸‼*
ईश्वर का तत्त्वरूप कह ले या दिव्यरूप कह ले या आग़ोचर कह ले या कोई अन्य नाम से पुकार ले लेकिन बिना ईश्वर को देखे ईश्वर की भक्ति नही कर सकते है। साकार रूप की मूर्ति जो होती है वो मानव कल्पना के अनुसार बनाता है फिर लोग उसकी पूजा करते है। लेकिन वास्तव में ईश्वर का जो रूप है उस रूप को हम् बाहरी आँखों से नही देख सकते है ओर अगर देख भी ले तो पहचान नही सकते है क्योंकि बाहरी आँखें स्थूल को देखने के लिए मिला है सूक्ष्म को नही। *जैसे--* हाथ मे हजारों कीटाणु होते है लेकिन वो दिखाई नही देती है लेकिन एक माइक्रोस्कॉप आता है जिससे हम् अपने हाथ मे बैठे कीटाणु को देख सकते है। *उसी तरह--* ईश्वर का तत्त्वरूप हमारे भीतर ही है बस उसे हम् देख नही सकते है क्योंकि हमारी आँखें बाहरी वस्तुओं को देखने मे सक्षम है हमारे भीतर के सूक्ष्म को नही। सूक्ष्म को देखने के लिए सूक्ष्म दिव्य की जरूरत है जिसे *दिव्य चक्षु/दिव्य दृष्टि/शिव नेत्र/तृतीय नेत्र/Third Eye* कहते है।
वह आँख जन्मजात से बन्द होती है क्योंकि माता के गर्भ से वो कड़ी टूट जाती है जिस कड़ी से जुड़कर ईश्वर का ध्यान करते थे गर्भ में ओर उसी ध्यान करते हुए हम् जीवित भी रहते थे बिना कुछ खाए-पिए। *जैसे--* सन्त-ऋषि सब ईश्वर का ध्यान करते हुए भूख-प्यास का ध्यान ही नही रहते है वैसे ही गर्भावस्था में बालक की स्थिति होती है लेकिन जन्म लेते ही उसका जो द्वार रहता है ध्यान का वो बन्द हो जाता है और उस द्वार को पुनः खोलने के लिए पुनः उस ध्यान की अवस्था तक पहुँचने के लिए *किसी ऐसे तत्वदर्शी के शरण मे जाना पड़ता है जो हमारे बन्द द्वार को खोलकर हमारे भीतर ही ईश्वर के तत्त्वरूप का दर्शन करवा दे।*
ईश्वर का तत्त्वरूप जब तक हमारे भीतर है तभी तक हम् जीवित है तो उस तत्त्वरूप को जरूर जाने जिससे हम् जीवित है और जिससे यह संसार जीवित है।
ईश्वर का तत्त्वरूप कह ले या दिव्यरूप कह ले या आग़ोचर कह ले या कोई अन्य नाम से पुकार ले लेकिन बिना ईश्वर को देखे ईश्वर की भक्ति नही कर सकते है। साकार रूप की मूर्ति जो होती है वो मानव कल्पना के अनुसार बनाता है फिर लोग उसकी पूजा करते है। लेकिन वास्तव में ईश्वर का जो रूप है उस रूप को हम् बाहरी आँखों से नही देख सकते है ओर अगर देख भी ले तो पहचान नही सकते है क्योंकि बाहरी आँखें स्थूल को देखने के लिए मिला है सूक्ष्म को नही। *जैसे--* हाथ मे हजारों कीटाणु होते है लेकिन वो दिखाई नही देती है लेकिन एक माइक्रोस्कॉप आता है जिससे हम् अपने हाथ मे बैठे कीटाणु को देख सकते है। *उसी तरह--* ईश्वर का तत्त्वरूप हमारे भीतर ही है बस उसे हम् देख नही सकते है क्योंकि हमारी आँखें बाहरी वस्तुओं को देखने मे सक्षम है हमारे भीतर के सूक्ष्म को नही। सूक्ष्म को देखने के लिए सूक्ष्म दिव्य की जरूरत है जिसे *दिव्य चक्षु/दिव्य दृष्टि/शिव नेत्र/तृतीय नेत्र/Third Eye* कहते है।
वह आँख जन्मजात से बन्द होती है क्योंकि माता के गर्भ से वो कड़ी टूट जाती है जिस कड़ी से जुड़कर ईश्वर का ध्यान करते थे गर्भ में ओर उसी ध्यान करते हुए हम् जीवित भी रहते थे बिना कुछ खाए-पिए। *जैसे--* सन्त-ऋषि सब ईश्वर का ध्यान करते हुए भूख-प्यास का ध्यान ही नही रहते है वैसे ही गर्भावस्था में बालक की स्थिति होती है लेकिन जन्म लेते ही उसका जो द्वार रहता है ध्यान का वो बन्द हो जाता है और उस द्वार को पुनः खोलने के लिए पुनः उस ध्यान की अवस्था तक पहुँचने के लिए *किसी ऐसे तत्वदर्शी के शरण मे जाना पड़ता है जो हमारे बन्द द्वार को खोलकर हमारे भीतर ही ईश्वर के तत्त्वरूप का दर्शन करवा दे।*
ईश्वर का तत्त्वरूप जब तक हमारे भीतर है तभी तक हम् जीवित है तो उस तत्त्वरूप को जरूर जाने जिससे हम् जीवित है और जिससे यह संसार जीवित है।
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