Friday, August 31, 2018

*आज का विचार

*आज का विचार 
        
           *शास्त्रों में धन की तीन गतियाँ बताई गई हैं, दान, भोग और तीसरी नाश। धन से जितना आप चाहो सुख के साधनों को अर्जित करलो। वाकी बचे धन को सृजन कार्यों में, सद्कार्यों में, अच्छे कार्यों में लगाओ। अगर आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो समझ लेना फिर आपका धन नाश को प्राप्त होने वाला है।*
        *धन का दुरूपयोग ही तो धन का नाश है और धन का अनुपयोग भी उसका नाश ही है। दुनिया आपको इसलिए याद नहीं करती कि आपके पास बड़ा धन है अपितु इसलिए याद करती है कि आपके पास बड़ा मन है और आप सिर्फ अर्जन नहीं करते आवश्यकता पड़ने पर विसर्जन भी करते हैं।*
       *धन के साथ एक बड़ा विरोधाभास और है कि जब-जब आप धन को संचित करने में लगे रहते हो तब-तब समाज में आपका मूल्य भी घटता जाता है। और जब-जब आपने इसे अच्छे कार्यों में लगाने का काम किया तब-तब समाज में आपको बहुत मूल्यवान समझा जाता है।* 
       *अत: धन का संचय आपके मूल्य को घटा देता है और धन का सदुपयोग आपके मूल्य को बढ़ा देता है।*
 
       

🎪🔱 *जय श्री महाकाल* 🔱🎪

🎪🔱 *जय श्री महाकाल* 🔱🎪
*श्री #महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग जी का आज का भस्म आरती श्रृंगार दर्शन*
*भाद्रपद कृष्णपक्ष तृतीया रात्रि 09:38 तक तत्पश्चात चतुर्थी सम्वत 2075*
*29 अगस्त  2018 ( बुधवार )*
*श्री #महाकालेश्वर  मंदिर उज्जैन मध्य प्रदेश*
🎪🌹 *ॐ श्री गणेशाय नमः* 🌹🎪

"श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-

         "श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-

ॐ . किसको किसने सुनाई?
उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।

ॐ . कब सुनाई?
उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।

ॐ. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
उ.- रविवार के दिन।

ॐ. कोनसी तिथि को?
उ.- एकादशी

ॐ. कहा सुनाई?
उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।

ॐ. कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में

ॐ. क्यू सुनाई?
उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।

ॐ. कितने अध्याय है?
उ.- कुल 18 अध्याय

ॐ. कितने श्लोक है?
उ.- 700 श्लोक

ॐ. गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।

ॐ. गीता को अर्जुन के अलावा
और किन किन लोगो ने सुना?
उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने

ॐ. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उ.- भगवान सूर्यदेव को

ॐ. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उ.- उपनिषदों में

ॐ. गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?
उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।

ॐ. गीता का दूसरा नाम क्या है?
उ.- गीतोपनिषद

ॐ. गीता का सार क्या है?
उ.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना

ॐ. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण जी ने- 574
अर्जुन ने- 85
धृतराष्ट्र ने- 1
संजय ने- 40.

अपनी युवा-पीढ़ी को गीता जी के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेअर करे। धन्यवाद

अधूरा ज्ञान खतरना होता है।

33 करोड नहीँ  33 कोटी देवी देवता हैँ हिँदू
धर्म मेँ।

कोटि = प्रकार।
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,

कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।

हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...

कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-

12 प्रकार हैँ
आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,
शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,
सविता, तवास्था, और विष्णु...!

8 प्रकार हे :-
वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।

11 प्रकार है :-
रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,
अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,
रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।

एवँ
दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।

कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी

अगर कभी भगवान् के आगे हाथ जोड़ा है
तो इस जानकारी को अधिक से अधिक
लोगो तक पहुचाएं। 

*" सत्य " हमेशा जल में तेल की एक बून्द के समान होता

*" सत्य " हमेशा जल में तेल की एक बून्द के समान होता है ।*

*आप कितना भी जल डालें...*
*वह हमेशा ऊपर ही तैरता है ।*

*इसलिये सत्य के मार्ग पर चलें और सच्चाई पर हमेशा कायम रहें।*


एक मिट्टी की मूर्तियां बनाने वाला कुम्हार ईश्वर से कहता

एक मिट्टी की मूर्तियां बनाने वाला कुम्हार ईश्वर से कहता है....
हे प्रभु तू भी एक कलाकार है और मैं भी एक कलाकार हूं तूने मुझ जैसे असंख्य पुतले बनाकर इस धरती पर भेजे हैं और मैंने तेरे असंख्य पुतले बनाकर इस धरती पर बेचे है ,,,
पर ईश्वर उस समय बड़ी शर्म आती है जब तेरी बनाई हुई पुतले आपस में लड़ते हैं और मेरे बनाए हुए पुतलो के सामने लोग सिर झुकाते हैं

*मनुष्य की एक जन्मजात भावना है

*मनुष्य की एक जन्मजात भावना है। मनुष्य स्वयं को अपने से जुडी प्रत्येक चीज को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है या श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करता है।* *पर ये सत्य है की वो अपने आप को किसी न किसी रूप में दूसरों की तुलना में बेहतर मानता है । मनुष्य की इसी भावना को अहं , अहंकार कहते है ।*
*अहंकार एक ऐसी भावना है जो किसी न किसी रूप में हम सब में पायी जाती है।अहंकार एक ऐसा मायावी अवगुण है की मनुष्य को पता भी नहीं चलता कब इसने उस पर अपना अधिकार जमा लिया है क्योंकि अहंकार के अनगनित बीज है जैसे किसी को रूप का , किसी को पैसे का ,किसी को जात या कुल का ,किसी को ज्ञानका ,किसी को बल का ,किसी को सत्ता का अहंकार होता है इसी तरह अहंकार की अनगनित रूप है कब किस रूप में हम पर आधिपत्य जमा लेता है और हमको पता भी नहीं चलता।यहाँ तक किसी सद्गुणी आदमी को अपने सद्गुणों का अहंकार हो सकता है जैसे की मेरे जसा दानी कोई नहीं , मेरे जैसी सेवा भावना कहीं नहीं ।यहाँ तक एक धार्मिक आदमी को अपने धर्म पर अहंकार हो सकता है ।*

कृष्ण मंत्र : कृष्ण संबंधी मंत्र तो बहुत हैं, लेकिन कुछ खास मंत्रों का ही प्रचलन और महत्व है। यहां प्रस्तुत है उनमें श्रद्धा व्यक्त करने संबंधी मंत्र

कृष्ण मंत्र : कृष्ण संबंधी मंत्र तो बहुत हैं, लेकिन कुछ खास मंत्रों का ही प्रचलन और महत्व है। यहां प्रस्तुत है उनमें श्रद्धा व्यक्त करने संबंधी मंत्र।

(1) 'ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः।।'
(2) ॐ नमः भगवते वासुदेवाय कृष्णाय क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः।
(3) हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।

मंत्र जाप का तरीका :
(1) पहले मंत्र के लिए पवित्रता का विशेष ध्‍यान रखें। स्नान पश्चात्य कुश के आसन पर बैठकर सुबह और शाम संध्या वंदन के समय उक्त मंत्र का 108 बार जाप करें। यह मंत्र जीवन में किसी भी प्रकार के संकट को पास फटकने नहीं देगा।

(2) दूसरा मंत्र संकटकाल में दोहराया जाता है। जब कभी भी व्यक्ति को आकस्मिक संकट का सामना करना पड़ता है तो तुरंत ही पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ उक्त मंत्र का जाप कर संकट से मुक्ति पाई जा सकती है।


(3) तीसरा मंत्र निरंतर दोहराते रहना चाहिए। उक्त मंत्र को चलते-फिरते, उठते-बैठते और कहीं भी किसी भी क्षण में दोहराते रहने से कृष्ण से जुड़ाव रहता है। इस तरह से कृष्ण का निरंतर ध्यान करने से व्यक्ति कृष्ण धारा से जुड़कर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पुष्ट कर लेता है।

सभी मंत्र को जपने से पूर्व एक बार 'ॐ श्री कृष्णाय शरणं मम।' मंत्र का उच्चारण अवश्य करें।

अत: उक्त मंत्र के महत्व को समझते हुए अन्य की ओर जो अपना मन नहीं लगाता वह कृष्ण की शरण में होता है। और जो कृष्ण की शरण में है उसे किसी भी प्रकार से रोग और शोक सता नहीं सकते। मस्तिष्क में किसी भी प्रकार के द्वंद्व नहीं होते।

ईश्वर का विधान

 ईश्वर का विधान

संतों की एक सभा चल रही थी !

🌟किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संत जन जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें !

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था ! उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे !

वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है !

🌟एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम!

संतों का स्पर्श मिलेगा ! उनकी सेवा का अवसर मिलेगा.. ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है !

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था ! किसी काम का नहीं था. कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है !

🌟फिर एक दिन एक कुम्हार आया  उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया !

वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा !  फिर पानी डालकर गूंथा ! चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया ! फिर गला काटा ! फिर थापी मार-मारकर बराबर किया.. बात यहीं नहीं रूकी , उसके बाद आंवे के आग में झोंक दिया जलने को !

🌟इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया ! वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं ?

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये ! मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था !

🌟रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है ! भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी !

किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया !

🌟तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी !

उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी !

आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी !

अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी !

🌟परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं ! विचलित कर देती हैं  !इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं ! क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की !

इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते , बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे !

पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए.. क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे??

*👉🏿तीन बातें भक्त के जीवन में जरूर होनी चाहिए

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*👉🏿तीन बातें भक्त के जीवन में जरूर होनी चाहिए*


*👉  प्रतीक्षा, परीक्षा और समीक्षा।*

*🌹1⃣👉🏿 प्रतीक्षा👈🏿* भक्ति के मार्ग में प्रतीक्षा बहुत आवश्यक है। प्रभु जरूर आयेंगे, कृपा करेंगे, ऐसा विश्वास रखते हुए प्रतीक्षा करें। बहुत बड़ी प्रतीक्षा के बाद शबरी की कुटिया में प्रभु आये थे।

*🌹2⃣👉🏿 परीक्षा👈🏿* संसार की परीक्षा करते रहें। इस संसार में सब अपने कारणों से जी रहे हैं। किसी के भी महत्वाकांक्षा के मार्ग पर बाधा बनोगे वही तुम्हारा अपना, पराया हो जायेगा। संसार का तो प्रेम भी छलावा है। संसार को जितना जल्दी समझ लो तो अच्छा है ताकि प्रभु के मार्ग पर तुम जल्दी आगे बढ़ो।

*🌹3⃣👉🏿समीक्षा👈🏿* अपनी समीक्षा रोज करते रहो, आत्मचिन्तन करो। जीवन उत्सव कैसे बने? प्रत्येक क्षण उल्लासमय कैसे बने? जीवन संगीत कैसे बने, यह चिन्तन जरूर करना। कुछ छोड़ना पड़े तो छोड़ने की हिम्मत करना और कुछ पकड़ना पड़े तो पकड़ने की हिम्मत रखना। अपनी समीक्षा से ही आगे के रास्ते दिखेंगे।

🏵💥🏵 *सभी प्रभुभक्तों को मेरा प्रणाम !!जय जय श्री राधेकृष्णा!!*🙏🚩

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*धोबी की कपडो से कोई दुश्मनी नहीं होती फिर भी वह कपडो को पत्थर पर मारता है,



*धोबी की कपडो से कोई दुश्मनी नहीं होती फिर भी वह कपडो को पत्थर पर मारता है, डंडे भी मारता है क्योंकि उसको कपडो से मैल निकालनी होती है*।
*जब मैल निकल जाती है तो कपडो को आराम से साफ जगह पर तह लगा कर रख देता है*।।।

*ठीक उसी प्रकार हमारा "ईश्वर" , "माता-पिता", अध्यापक व "बडा भाई" अगर हमको कोई दन्ड देते है, कष्ट देते हैं, समझाते है, गुस्सा होते हैं या और किसी तरह की सजा देते हे तो हमारे अवगुण दूर करने के लिए या हमारा जीवन सुधारने के लिए देते हैं*।।

*यह"सच्चाई"सदैव याद रखना"* ।।

Wednesday, August 29, 2018

(((((( पंचमुखी क्यो हुए हनुमान ))))))

(पंचमुखी क्यो हुए हनुमान )
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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
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रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
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लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
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रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए.
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विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.
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राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
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अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.
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राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
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विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
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विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.
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निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त.
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कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
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हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.
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द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
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दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.
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हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
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हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.
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उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
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मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
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मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.
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हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
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हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
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मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.
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इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.
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हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.
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हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
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अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
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पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
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अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.
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मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
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अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.
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हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
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चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.
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हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
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फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
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हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.
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जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
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चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.
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भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
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मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.
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ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
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उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.
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हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
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जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.
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हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.
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भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
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भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.
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फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.
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हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
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उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.
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इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
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पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
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श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.
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कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
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हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
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हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.
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पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.
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चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
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चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.
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क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
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हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
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श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये. (स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा)

*यह"सच्चाई"सदैव याद रखना"* ।



*धोबी की कपडो से कोई दुश्मनी नहीं होती फिर भी वह कपडो को पत्थर पर मारता है, डंडे भी मारता है क्योंकि उसको कपडो से मैल निकालनी होती है*।
*जब मैल निकल जाती है तो कपडो को आराम से साफ जगह पर तह लगा कर रख देता है*।।।

*ठीक उसी प्रकार हमारा "ईश्वर" , "माता-पिता", अध्यापक व "बडा भाई" अगर हमको कोई दन्ड देते है, कष्ट देते हैं, समझाते है, गुस्सा होते हैं या और किसी तरह की सजा देते हे तो हमारे अवगुण दूर करने के लिए या हमारा जीवन सुधारने के लिए देते हैं*।।

*यह"सच्चाई"सदैव याद रखना"* ।।


*🙏आज का विचार 🙏*

*🙏आज का विचार 🙏*

*जीवन है तो समस्याएँ तो आयेंगी। समस्याएँ ही तो जीवन को परिपक्व करने का उपाय हैं। समस्याएँ आती हैं, तुम उनसे जूझते हो और परिपक्व होते हो।*

*लेकिन याद रखना, समस्याएँ तुम्हें तभी परिपक्व कर पायेंगी जब तुम स्वयं उनसे जूझो, जब समाधान तुम्हारी अपनी चेतना खोजे।  कहीं से समाधान खोजने की अपेक्षा अपनी चेतना को ऊँचा उठाओ।*

*जैसे-जैसे चेतना ऊँची उठेगी, तुम अधिक जागरूक होते जाओगे। जैसे-जैसे चेतना विकसित होती है, व्यक्ति समस्याओं से निपटने में अधिक सक्षम होता जाता है। हाँ, नयी चेतना के साथ नयी समस्याएँ भी आयेंगी, लेकिन वे उच्च तल की होंगी। और जो नयी चेतना नयी समस्याएँ लाती हैं, वह नये समाधान भी लाती हैं। उच्चतर चेतना तुम्हें एक स्पष्टता देती है, समझ और साहस देती
       

*शुप्रभात मित्रो आपका दिन शुभ एवम् खूबसूरत हो*

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** भक्ति देवी की प्राकट्य होने के लक्षण **

** भक्ति देवी की प्राकट्य होने के लक्षण **

1. सबसे पहले आप में हरि गुण , लीला , धाम , रुप को जानने और सुनने की उत्कंठा जाग्रृत होगी।

2. आपको हरि और हरि गुरु कथा में मन लगने लगेगा।

3. हरि पद संकिर्तन में मन लगने लगेगा। आप काम करते हुये हरि गुण गीत , पद ही गुणगुणाऐगें और ये क्रम बढ़ता जाऐगा ।

4. आप बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होने लगेंगें ।आप टीवी , सिनेमा और अन्य संसारिक बातो में रुची लेना कम करने लगेगें और एक दिन बिल्कुल ही इन चीजों मे दिलचस्पी खत्म हो जाऐगी, कोई सुनायेगा जबरदस्ती तो उसको बाहर ही बाहर रहने देंगें ।

5. हमेशा इंतजार रहेगा की कब कोई हरि कथा सुनावे , कहे और सुनने में आनन्द आने लगेगा।

6. आप इंतजार करेंगें की कब संसारी कार्य ऑफिस का या व्यापार का समाप्त हो दिन ढले और एकातं पायें उनको याद करने के लिए, उनको सुनने के लिये ।

7 . निश्चिन्तता , निर्भिकता जीवन में उतरती जाऐगी।

8. सारी चिन्ता परेशानी सुख एवं दु:ख की फिलीगं दुर होती जाएगी। परेशानी दुख भी आप हँसते हुए काट लेंगें ।हरि पल पल आपके साथ हैं महसुस होगा ।

9 फाइवस्टार होटल में भी जाने की इच्छा नही होगी, कहने का मतलब बड़ा से बड़ा संसारिक सुख भी फिका लगने लगेगा ।

10 , केवल वे ही अच्छे लगेंगें जो हरि की बात करे सुनावें , बाकि लोगों से न राग न द्वेश कुछ भी महसुस नही करेंगें ।

11 अहंकार समाप्त होने लगेगा , सबमें प्रभू है चाहे वो कोइ भी हो , ऐसा महसुस होने लगेगा , मान अपमान , भय का एहसास नही होगा ।

12 . सभी का भला हो चाहे वो आपका दोस्त हो चाहे आपको नापसंद करने वाला क्युँ नही :- ऐसी भावना जागने लगेगी ।

13 . दुनिया की चकाचौध आपको नही लुभा पाऐगी।

14.धन दौलत , मकान जमीन पद , प्रतिष्ठा , नौकरी , व्यापार केवल काम का होगा , उससे आसक्ति समाप्त समाप्त होने लगेगी ।

आप आपने परिजनो के प्रति फर्ज केवल इस भावना से पुरा करेंगें की ये प्रभु की आज्ञा से ही , उनकी शक्ति से हीं उनके ही बच्चे है सभी ऐसा महसुस करके पुरा करेंगें ।

15 . काम , क्रोध , ईर्ष्या , घृणा , नफरत , राग , द्वेश आदि क्षीण होती जाऐगी।

16 . एकांत मे ज्यादा मन लगने लगेगा,आपका मेमोरी पावर बहुत बढ़ जाऐगा

17 . सात्विक खाना ही अच्छा लगेगा वो भी बस केवल शरीर चलाने के लिए जरुरी है ऐसा मान कर , कौस्टली खाने पीने के प्रति उदासिन हो जाऐगें ।

18 . प्रभु की मोहिनी मूर्त निहारने का मन करेगा हर वक्त।

19. आपको प्रकृति , जैसे पेड़ , पहाड़ , झरने , नदियां , फुल आदि मन भाने लगेगा ।

20 . ब्रजधाम , गुरुधाम मन में बस जाएगा मन करेगा बार बार जाऐ ।

21 . पंछी , फुलों में प्रभु का आभास होगा, इसके बाद कुछ इस तरह का होगा:-

1. प्रभु को पाने का देखने का प्यास वलवती होती जाऐगी।

2. प्रभु का गुण , लीला , धाम के वारे में सुन कर आँखे भर आऐगी आँसु आने लगेंगें ।

3. आप केवल उनको ही हर तरफ हर वस्तु में ढुँढने की कोशिश करेंगें

4. हर समय उनका इंतजार रहेगा की अब वो आऐगें , हमको गले लगाऐंगें।

5. उनका मोहिनी रुप बार बार आँखों के सामने आते रहेगा और आप आँखें खोल कर भी उन्ही के सपनो में खोऐगें रहेगें ,
 ठीक उसी तरह जैसे एक प्रेमी प्रेमिका एक दुसरे को पाने का सपना लिये इंतजार करता रहते हैं।

इसके बाद गुरु कृपा से कुछ इस तरह के लक्षण प्रकट होंगे:-

1 . जब भी आप एकान्त में होगें या एकान्त साधना में होंगें तो आपको अविरल आँसु आऐगें , गरम गरम आँसु लगातार अपने आप आऐगें , आप नही रोक पाऐगें इनको।

2. स्वर कम्पित होने लगेगा, आप रा बोलेंगे , तो धा नही बोला जाऐगा या बहुत देर लगेगी बोलने में ,

3. गरमी में सर्दी और सर्दी में कभी कभी गरमी का अनुभव होने लगेगा, रोम रोम पुल्कित होने लगेगा।

4 . शरीर हल्का होने लगेगा , शरीर कम्पित होने लगेगा ।

5 . फिर शरीर कड़ा होने लगेगा, शरीर से खुशबुदार पसीना आने लगेगा ।

6 . आपको मुर्छा आने लगेगी।

राधे राधे - आज का भगवद चिन्तन॥

राधे राधे - आज का भगवद चिन्तन॥
             
        आज का आदमी तन से ही अस्वस्थ नहीं है अपितु मन से भी अस्वस्थ हो गया है। आज का आदमी विचारों से भी गरीब हो गया है। वह अब शुभ को सोच भी नहीं सकता, किसी के लिए अच्छे की कामना भी नहीं कर सकता।
        सोचने में अदभुत सामर्थ्य है। आपकी सोच ही तो आपके व्यक्तित्व का निर्माण करती है। आप जो भी हैं वो आपकी सोच ने, आपकी विचार शक्ति ने ही आपको बनाया है। अच्छा करने के लिए आपको बाध्य तो नहीं किया जा सकता लेकिन अच्छा सोचने की सलाह जरूर दी जा सकती है। आपकी सोच अच्छी रहेगी तो फिर आपके कर्म स्वत: अच्छे रहेगें।
        जिसके विचार सुन्दर हैं वही मनुष्य वास्तविक रूप से सुन्दर है। अगर आपके विचार सुन्दर हैं तो फिर आपका व्यवहार भी अवश्य सुन्दर होगा। अगर आप विचार ही अच्छे न रख पायें, दूसरों के लिए शुभ की कामना तक न कर सकें तो सच मानो दुनियाँ में आपसे बढ़कर कोई दरिद्र नहीं है।

             

जब भगवान शिव ने मगरमच्छ बनकर ली पार्वती की परीक्षा।

जब भगवान शिव ने मगरमच्छ बनकर ली पार्वती की परीक्षा।

माता पार्वती शिव जी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप कर रही थीं। उनके तप को देखकर देवताओं ने शिव जी से देवी की मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की।

शिव जी ने पार्वती जी की परीक्षा लेने सप्तर्षियों को भेजा। सप्तर्षियों ने शिव जी के सैकड़ों अवगुण गिनाए पर पार्वती जी को महादेव के अलावा किसी और से विवाह मंजूर न था।

 विवाह से पहले सभी वर अपनी भावी पत्नी को लेकर आश्वस्त होना चाहते हैं। इसलिए शिव जी ने स्वयं भी पार्वती की परीक्षा लेने की ठानी।  भगवान शंकर प्रकट हुए और पार्वती को वरदान देकर अंतर्ध्यान हुए। इतने में जहां वह तप कर रही थीं, वही पास में तालाब में मगरमच्छ ने एक लड़के को पकड़ लिया।

 लड़का जान बचाने के लिए चिल्लाने लगा। पार्वती जी से उस बच्चे की चीख सुनी न गई। द्रवित हृदय होकर वह तालाब पर पहुंचीं। देखती हैं कि मगरमच्छलड़के को तालाब के अंदर खींचकर ले जा रहा है।  लड़के ने देवी को देखकर कहा- मेरी न तो मां है न बाप, न कोई मित्र... माता आप मेरी रक्षा करें.. .

 पार्वती जी ने कहा- हे ग्राह ! इस लडके को छोड़ दो। मगरमच्छ बोला- दिन के छठे पहर में जो मुझे मिलता है, उसे अपना आहार समझ कर स्वीकार करना, मेरा नियम है।  ब्रह्मदेव ने दिन के छठे पहर इस लड़के को भेजा है। मैं इसे क्यों छोडूं ?

 पार्वती जी ने विनती की- तुम इसे छोड़ दो। बदले में तुम्हें जो चाहिए वह मुझसे कहो।
मगरमच्छ बोला- एक ही शर्त पर मैं इसे छोड़ सकता हूं। आपने तप करके महादेव से जो वरदान लिया, यदि उस तप का फल मुझे दे दोगी तो मैं इसे छोड़ दूंगा।

पार्वती जी तैयार हो गईं। उन्होंने कहा- मैं अपने तप का फल तुम्हें देने को तैयार हूं लेकिन तुम इस बालक को छोड़ दो।  मगरमच्छ ने समझाया- सोच लो देवी, जोश में आकर संकल्प मत करो। हजारों वर्षों तक जैसा तप किया है वह देवताओं के लिए भी संभव नहीं।

 उसका सारा फल इस बालक के प्राणों के बदले चला जाएगा। पार्वती जी ने कहा- मेरा निश्चय पक्का है। मैं तुम्हें अपने तप का फल देती हूं। तुम इसका जीवन दे दो।

 मगरमच्छ ने पार्वती जी से तपदान करने का संकल्प करवाया। तप का दान होते ही मगरमच्छ का देह तेज से चमकने लगा।  मगर बोला- हे पार्वती, देखो तप के प्रभाव से मैं तेजस्वी बन गया हूं। तुमने जीवन भर की पूंजी एक बच्चे के लिए व्यर्थ कर दी। चाहो तो अपनी भूल सुधारने का एक मौका और दे सकता हूं।

 पार्वती जी ने कहा- हे ग्राह ! तप तो मैं पुन: कर सकती हूं, किंतु यदि तुम इस लड़के को निगल जाते तो क्या इसका जीवन वापस मिल जाता ?
देखते ही देखते वह लड़का अदृश्य हो गया। मगरमच्छ लुप्त हो गया।

पार्वती जी ने विचार किया- मैंने तप तो दान कर दिया है। अब पुन: तप आरंभ करती हूं। पार्वती ने फिर से तप करने का संकल्प लिया।
भगवान सदाशिव फिर से प्रकट होकर बोले- पार्वती, भला अब क्यों तप कर रही हो?

 पार्वती जी ने कहा- प्रभु ! मैंने अपने तप का फल दान कर दिया है। आपको पतिरूप में पाने के संकल्प के लिए मैं फिर से वैसा ही घोर तप कर आपको प्रसन्न करुंगी।

 महादेव बोले- मगरमच्छ और लड़के दोनों रूपों में मैं ही था। तुम्हारा चित्त प्राणिमात्र में अपने सुख-दुख का अनुभव करता है या नहीं, इसकी परीक्षा लेने को मैंने यह लीला रची। अनेक रूपों में दिखने वाला मैं एक ही एक हूं। मैं अनेक शरीरों में, शरीरों से अलग निर्विकार हूं। तुमने अपना तप मुझे ही दिया है इसलिए अब और तप करने की जरूरत नहीं....

 देवी ने महादेव को प्रणाम कर प्रसन्न मन से विदा किया।

*आज का विचार

*आज का विचार

*"वर्तमान में संसार के समस्त प्राणियों के दुख की धुरी स्वार्थ पर केंद्रित है...हम अपनी सम्पूर्ण दूरदर्शिता निज स्वार्थ साधने में ही नष्ट कर देते..अपने कार्यों को सफल बनाने हेतु हम तब तक नम्र बने रहते जब तक हम उसको अंजाम तक न पहुचा दें,तदुपरांत हम उस माध्यम की ऐसे भूल जाते है जैसे नदी पार करने के उपरांत नौका को हम अनुपयोगी समझ लेते है*

*हम कितने भी अनजान बने रहें ,परन्तु सर्वव्यापी परमात्मा से हमारी ये चालाकियां छुप नही सकती है, और इसी क्रियाशीलता के आधार पर प्रभु  हमारे सुखों-दुखों का निर्धारण  करते है...आज प्रभु से संसार की नज़रों में न सही ,परमेश्वर की निगाहों में बेहतर करने की अलौकिक प्रार्थना के साथ..."*

   
                                                       

*प्रभु का नाम तो भव सागर से तारने वाला है



*प्रभु का नाम तो भव सागर से तारने वाला है,*
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*सच मे हम भगवान नाम का जप एंव आश्रय तो लेते है पर भगवान नाम मे पूर्ण विश्वाव एंव श्रद्धा नही होने से हम इसका पूर्ण लाभ प्राप्त नही कर पाते..*
*शास्त्र बताते है कि भगवान श्री राम का एक नाम इतने पापो को मिटा सकता है जितना कि एक पापी व्यक्ति कभी कर भी नही सकता..*

*अतएव भगवान नाम पे पूर्ण श्रद्धा एंव विश्वास रखकर ह्रदय के अंतकरण से भाव विह्वल होकर जैसे एक छोटा बालक अपनी माँ के लिए बिलखता है ..उसी भाव से सदैव नाम प्रभु का सुमिरन एंव जप करे*

*कलियुग केवल नाम अधारा !*
*सुमिर सुमिर नर उताराहि ही पारा!!*

🏵️ वृंदावन का इतिहास 🏵️

🏵️ वृंदावन का इतिहास 🏵️
       
👉 वृंदावन तो हम सभी जाते हैं परन्तु वृंदावन के इतिहास को कम ही लोग जानते हैं आज चर्चा करते हैं श्रीवृन्दावन धाम के इतिहास की 🙏
           मथुरा से 12 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में यमुना तट पर स्थित है। यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है। इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों की स्थिति का ज्ञान होता है।
           श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे।

👉 "प्राचीन वृन्दावन"

         कहते है कि वर्तमान वृन्दावन असली या प्राचीन वृन्दावन नहीं है। श्रीमद्भागवत के वर्णन तथा अन्य उल्लेखों से जान पड़ता है, कि प्राचीन वृन्दावन गोवर्धन के निकट था। गोवर्धन-धारण की प्रसिद्ध कथा की स्थली वृन्दावन पारसौली (परम रासस्थली) के निकट था। अष्टछाप कवि महाकवि सूरदास इसी ग्राम में दीर्घकाल तक रहे थे। सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है- "हम ना भई वृन्दावन रेणु"।

👉 "ब्रज का हृदय"

   वृन्दावन का नाम आते ही मन पुलकित हो उठता है। योगेश्वर श्री कृष्ण की मनभावन मूर्ति आँखों के सामने आ जाती है। उनकी दिव्य आलौकिक लीलाओं की कल्पना से ही मन भक्ति और श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है। वृन्दावन को ब्रज का हृदय कहते हैं। जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाएँ की हैं। इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है। पद्म पुराण में इसे भगवान का साक्षात शरीर, पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय बताया गया है। इसी कारण से यह अनादि काल से भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। चैतन्य महाप्रभु, स्वामी हरिदास, श्री हितहरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी भक्तों ने इसके वैभव को सजाने और संसार को अनश्वर सम्पति के रुप में प्रस्तुत करने में जीवन लगाया है। यहाँ आनन्दप्रद युगलकिशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की अद्भुत नित्य विहार लीला होती रहती है।

👉 "नामकरण"

 इस पावन स्थली का वृन्दावन नामकरण कैसे हुआ ? इस संबंध में अनेक मत हैं। 'वृन्दा' तुलसी को कहते हैं। यहाँ तुलसी के पौधे अधिक थे। इसलिए इसे वृन्दावन कहा गया। वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृन्दा हैं। कहते हैं कि वृन्दा देवी का मन्दिर सेवाकुंज वाले स्थान पर था। यहाँ आज भी छोटे-छोटे सघन कुंज हैं। श्री वृन्दा देवी के द्वारा परिसेवित परम रमणीय विविध प्रकार के सेवाकुंजों और केलिकुंजों द्वारा परिव्याप्त इस रमणीय वन का नाम वृन्दावन है। यहाँ वृन्दा देवी का सदा-सर्वदा अधिष्ठान है। वृन्दा देवी श्रीवृन्दावन की रक्षयित्री, पालयित्री, वनदेवी हैं। वृन्दावन के वृक्ष, लता, पशु-पक्षी सभी इनके आदेशवर्ती और अधीन हैं। श्री वृन्दा देवी की अधीनता में अगणित गोपियाँ नित्य-निरन्तर कुंजसेवा में संलग्न रहती हैं। इसलिए ये ही कुंज सेवा की अधिष्ठात्री देवी हैं। पौर्णमासी योगमाया पराख्या महाशक्ति हैं। गोष्ठ और वन में लीला की सर्वांगिकता का सम्पादन करना योगमाया का कार्य है। योगमाया समाष्टिभूता स्वरूप शक्ति हैं। इन्हीं योगमाया की लीलावतार हैं- भगवती पौर्णमासीजी। दूसरी ओर राधाकृष्ण के निकुंज-विलास और रास-विलास आदि का सम्पादन कराने वाली वृन्दा देवी हैं। वृन्दा देवी के पिता का नाम चन्द्रभानु, माता का नाम फुल्लरा गोपी तथा पति का नाम महीपाल है। ये सदैव वृन्दावन में निवास करती हैं। ये वृन्दा, वृन्दारिका, मैना, मुरली आदि दूती सखियों में सर्वप्रधान हैं। ये ही वृन्दावन की वनदेवी तथा श्रीकृष्ण की लीलाख्या महाशक्ति की विशेष मूर्तिस्वरूपा हैं। इन्हीं वृन्दा ने अपने परिसेवित और परिपालित वृन्दावन के साम्राज्य को महाभाव स्वरूपा वृषभानु नन्दिनी राधिका के चरणकमलों में समर्पण कर रखा है। इसीलिए राधिका जी ही वृन्दावनेश्वरी हैं।
         ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वृन्दा राजा केदार की पुत्री थी। उसने इस वनस्थली में घोर तप किया था। अत: इस वन का नाम वृन्दावन हुआ। कालान्तर में यह वन धीरे-धीरे बस्ती के रुप में विकसित होकर आबाद हुआ। ब्रह्म वैवर्त पुराण में राजा कुशध्वज की पुत्री जिस तुलसी का शंखचूड़ से विवाह आदि का वर्णन है, तथा पृथ्वी लोक में हरिप्रिया वृन्दा या तुलसी जो वृक्ष रूप में देखी जाती हैं- ये सभी सर्वशक्तिमयी राधिका की कायव्यूहा स्वरूपा, सदा-सर्वदा वृन्दावन में निवास कर और सदैव वृन्दावन के निकुंजों में युगल की सेवा करने वाली वृन्दा देवी की अंश, प्रकाश या कला स्वरूपा हैं। इन्हीं वृन्दा देवी के नाम से यह वृन्दावन प्रसिद्ध है। इसी पुराण में कहा गया है कि श्रीराधा के सोलह नामों में से एक नाम वृन्दा भी है। वृन्दा अर्थात राधा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलने की आकांक्षा लिए इस वन में निवास करती है और इस स्थान के कण-कण को पावन तथा रसमय करती हैं। वृन्दावन यानी भक्ति का वन अथवा तुलसी का वन।

👉"प्राकृतिक छटा"

वृन्दावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यमुना जी ने इसको तीन ओर से घेरे रखा है। यहाँ के सघन कुंजो में भाँति-भाँति के पुष्पों से शोभित लता तथा ऊँचे-ऊँचे घने वृक्ष मन में उल्लास भरते हैं। बसंत ॠतु के आगमन पर यहाँ की छटा और सावन-भादों की हरियाली आँखों को शीतलता प्रदान करती है, वह श्रीराधा-माधव के प्रतिबिम्बों के दर्शनों का ही प्रतिफल है।
          वृन्दावन का कण-कण रसमय है। यहाँ प्रेम-भक्ति का ही साम्राज्य है। इसे गोलोक धाम से अधिक बढ़कर माना गया है। यही कारण है, कि हज़ारों धर्म-परायणजन यहाँ अपने-अपने कामों से अवकाश प्राप्त कर अपने शेष जीवन को बिताने के लिए यहाँ अपने निवास स्थान बनाकर रहते हैं। वे नित्य प्रति रासलीलाओं, साधु-संगतों, हरिनाम संकीर्तन, भागवत आदि ग्रन्थों के होने वाले पाठों में सम्मिलित होकर धर्म-लाभ प्राप्त करते हैं। वृन्दावन मथुरा भगवान कृष्ण की लीला से जुडा हुआ है। ब्रज के केन्द्र में स्थित वृन्दावन में सैंकड़ो मन्दिर है। जिनमें से अनेक ऐतिहासिक धरोहर भी है। यहाँ सैंकड़ों आश्रम और कई गौशालाऐं है। गौड़ीय वैष्णव, वैष्णव और हिन्दुओं के धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए वृन्दावन विश्वभर में प्रसिद्ध है। देश से पर्यटक और तीर्थ यात्री यहाँ आते है। सूरदास, स्वामी हरिदास, चैतन्य महाप्रभु के नाम वृन्दावन से हमेशा के लिए जुड़े हुए है ।

👉 "यमुना के घाट"

श्रीवराहघाट:-  वृन्दावन के दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्राचीन यमुनाजी के तट पर श्रीवराहघाट अवस्थित है। तट के ऊपर भी श्रीवराहदेव विराजमान हैं। पास ही श्रीगौतम मुनि का आश्रम है।

कालीयदमनघाट:- इसका नामान्तर कालीयदह है। यह वराहघाट से लगभग आधे मील उत्तर में प्राचीन यमुना के तट पर अवस्थित है। यहाँ के प्रसंग के सम्बन्ध में पहले उल्लेख किया जा चुका है। कालीय को दमन कर तट भूमि में पहुँच ने पर श्रीकृष्ण को ब्रजराज नन्द और ब्रजेश्वरी श्री यशोदा ने अपने आसुँओं से तर-बतरकर दिया तथा उनके सारे अंगो में इस प्रकार देखने लगे कि 'मेरे लाला को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची है।' महाराज नन्द ने कृष्ण की मंगल कामना से ब्राह्मणों को अनेकानेक गायों का यहीं पर दान किया था।

सूर्यघाट:- इसका नामान्तर आदित्यघाट भी है। गोपालघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित है। घाट के ऊपर वाले टीले को आदित्य टीला कहते हैं। इसी टीले के ऊपर श्रीसनातन गोस्वामी के प्राणदेवता श्री मदन मोहन जी का मन्दिर है। उसके सम्बन्ध में हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं। यहीं पर प्रस्कन्दन तीर्थ भी है।

युगलघाट:- सूर्य घाट के उत्तर में युगलघाट अवस्थित है। इस घाट के ऊपर श्री युगलबिहारी का प्राचीन मन्दिर शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है। केशी घाट के निकट एक और भी जुगल किशोर का मन्दिर है। वह भी इसी प्रकार शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है।

श्रीबिहारघाट:- युगलघाट के उत्तर में श्रीबिहारघाट अवस्थित है। इस घाट पर श्रीराधाकृष्ण युगल स्नान, जल विहार आदि क्रीड़ाएँ करते थे।

श्रीआंधेरघाट:- युगलघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित हैं। इस घाट के उपवन में कृष्ण और गोपियाँ आँखमुदौवल की लीला करते थे। अर्थात् गोपियों के अपने करपल्लवों से अपने नेत्रों को ढक लेने पर श्रीकृष्ण आस-पास कहीं छिप जाते और गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ती थीं। कभी श्रीकिशोरी जी इसी प्रकार छिप जातीं और सभी उनको ढूँढ़ते थे।

इमलीतला घाट:- आंधेरघाट के उत्तर में इमलीघाट अवस्थित है। यहीं पर श्रीकृष्ण के समसामयिक इमली वृक्ष के नीचे महाप्रभु श्रीचैतन्य देव अपने वृन्दावन वास काल में प्रेमाविष्ट होकर हरिनाम करते थे। इसलिए इसको गौरांगघाट भी कहते हैं।

श्रृंगारघाट:- इमलीतला घाट से कुछ पूर्व दिशा में यमुना तट पर श्रृंगारघाट अवस्थित है। यहीं बैठकर श्रीकृष्ण ने मानिनी श्रीराधिका का श्रृंगार किया था। वृन्दावन भ्रमण के समय श्रीनित्यानन्द प्रभुने इस घाट में स्नान किया था तथा कुछ दिनों तक इसी घाट के ऊपर श्रृंगारवट पर निवास किया था ।

श्रीगोविन्दघाट:- श्रृंगारघाट के पास ही उत्तर में यह घाट अवस्थित है। श्रीरासमण्डल से अन्तर्धान होने पर श्रीकृष्ण पुन: यहीं पर गोपियों के सामने आविर्भूत हुये थे।

चीर घाट:- कौतु की श्रीकृष्ण स्नान करती हुईं गोपिकुमारियों के वस्त्रों को लेकर यहीं कदम्ब वृक्ष के ऊपर चढ़ गये थे। चीर का तात्पर्य वस्त्र से है। पास ही कृष्ण ने केशी दैत्य का वध करने के पश्चात यहीं पर बैठकर विश्राम किया था। इसलिए इस घाटका दूसरा नाम चैन या चयनघाट भी है। इसके निकट ही झाडूमण्डल दर्शनीय है।

श्रीभ्रमरघाट:- चीरघाट के उत्तर में यह घाट स्थित है। जब किशोर-किशोरी यहाँ क्रीड़ा विलास करते थे, उस समय दोनों के अंग सौरभ से भँवरे उन्मत्त होकर गुंजार करने लगते थे। भ्रमरों के कारण इस घाट का नाम भ्रमरघाट है।

श्रीकेशीघाट:- श्रीवृन्दावन के उत्तर-पश्चिम दिशा में तथा भ्रमरघाट के उत्तर में यह प्रसिद्ध घाट विराजमान है। इसका हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं।

धीरसमीरघाट:- श्रीवृन्दावन की उत्तर-दिशा में केशीघाट से पूर्व दिशा में पास ही धीरसमीरघाट है। श्रीराधाकृष्ण युगल का विहार देखकर उनकी सेवा के लिए समीर भी सुशीतल होकर धीरे-धीरे प्रवाहित होने लगा था।

श्रीराधाबागघाट:- वृन्दावन के पूर्व में यह घाट अवस्थित है। इसका भी वर्णन पहले किया जा चुका है।
श्रीपानीघाट:- इसी घाट से गोपियों ने यमुना को पैदल पारकर महर्षि दुर्वासा को सुस्वादु अन्न भोजन कराया था।
आदिबद्रीघाट:- पानीघाट से कुछ दक्षिण में यह घाट अवस्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों को आदिबद्री नारायण का दर्शन कराया था।

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वृन्दावन सो  वन नहीं , नन्दगांव सो  गांव।
     बंशीवट सो बट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम।।
             

🏵️ प्रेम से बोलिये वृन्दावन धाम की जय 🏵️
            🏵️ जय जय श्री राधे 🏵️

बाँसुरी


8
* बाँसुरी *

बाँसुरी बनाने वाले बताते हैं कि, इसके लिए आवश्यक बाँस को तिथि के अनुसार तोड़ा जाता है।
पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी इन तिथियों पर अगर बाँस तोड़ा गया तो उसमें कीड़े लग जाते हैं। इसका कारण ये है कि, इन तिथियों का अंतिम अक्षर " मी " है जो " मैं " अथवा अहंकार का परिचायक है और अहंकार से कार्यनाश होकर बाँसुरी अधिक समय तक नहीं चलती, ऐंसी मान्यता है।

कृष्ण भगवान का पसंदीदा वाद्य बाँसुरी है।
एक बार कृष्ण के सभी सखा और गोपियों ने बाँसुरी से कहा कि, हम कृष्ण के इतने करीबी हैं, उनकी भक्ति करते, उनका गुणगान करते हैं, उनके आसपास घूमते रहते हैं, लेकिन वे हमें उतना भाव नहीं देते और तुम इतनी साधारण, ना रूप ना और कुछ, फिर भी भगवान तुम्हें होंठों से लगाए रहते हैं। आखिर तुमने ऐंसा कौनसा जादू किया है उनपर ??

बाँसुरी ने हँसकर कहा---" तुम मेरी तरह बनो फिर कृष्ण तुम्हें भी अपने करीब रखेंगे। मैं एकदम सीधी हूँ, ना कोई गाँठ और ना ही कोई मोड़ या घुमाव। मैं अंदर से पोली हूँ और उसी पोलेपन से मेरा सारा अहंकार निकल गया है।
मेरे शरीर के 6 छिद्रों द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार सब मैंने बाहर फेंक दिए हैं।
मेरी खुद की कोई आवाज नहीं है। मुझमें फूँक मारने पर ही मैं बोलती हूँ।
जो जैंसी फूँक मारता है, मैं वैसा ही बोलती हूँ। "

बाँसुरी का प्यारा उत्तर सुन सखा और गोपियाँ सभी निरुत्तर हो गए।

*अहंकार रहित शरीर ही, श्री हरी की बाँसुरी है*

।। मैं आ गया मेरी बहन ।।


 ।।   मैं आ गया मेरी बहन  ।।
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ब्रजमंडल क्षेत्र में एक जंगल के पास एक गाँव बसा था। जंगल के किनारे ही एक टूटी-फूटी झोपड़ी में एक सात वर्षीया बालिका अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहा करती थी। जिसका नाम उसकी दादी ने बड़े प्रेम से चंदा रखा था।
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चंदा का उसकी दादी के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं था, उसके माता पिता की मृत्यु एक महामारी में उस समय हो गई थी जब चंदा की आयु मात्र दो वर्ष ही थी, तब से उसकी दादी ने ही उसका पालन-पोषण किया था।
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उस बूढ़ी स्त्री के पास भी कमाई का कोई साधन नहीं था इसलिए वह जंगल जाती और लकड़िया बीन कर उनको बेचती और उससे जो भी आय होती उससे ही उनका गुजारा चलता था।
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क्योंकि घर में और कोई नहीं था इसलिए दादी चंदा को भी अपने साथ जंगल ले जाती थी। दोनों दादी-पोती दिन भर जंगल में भटकते और संध्या होने से पहले घर वापस लौट आते ... यही उनका प्रति दिन का नियम था।
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चंदा अपनी दादी के साथ बहुत प्रसन्न रहती थी, किन्तु उसको एक बात बहुत कचोटती थी कि उसका कोई भाई या बहन नहीं थे। गांव के बच्चे उसको इस बात के लिए बहुत चिढ़ाते थे तथा उसको अपने साथ भी नहीं खेलने देते थे, इससे वह बहुत दुःखी रहती थी।
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अनेक बार वह अपनी दादी से पूछती की उसका कोई भाई क्यों नहीं है। तब उसकी दादी उसको प्रेम से समझाती.. कौन कहता है कि तेरा कोई भाई नहीं है, वह है ना कृष्ण कन्हैया वही तेरा भाई है, यह कह कर दादी लड्डू गोपाल की और संकेत कर देती।
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चंदा की झोपडी में एक पुरानी किन्तु बहुत सुन्दर लड्डू गोपाल की प्रतीमा थी जो उसके दादा जी लाये थे। चंदा की दादी उनकी बड़े मन से सेवा किया करती थी। बहुत प्रेम से उनकी पूजा करती और उनको भोग लगाती।
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निर्धन स्त्री पकवान मिष्ठान कहाँ से लाये जो उनके खाने के लिए रुखा सूखा होता वही पहले भगवान को भोग लगाती फिर चंदा के साथ बैठ कर खुद खाती। चंदा के प्रश्न सुनकर वह उस लड्डू गोपाल की और ही संकेत कर देती।
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बालमन चंदा लड्डू गोपाल को ही अपना भाई मानने लगी। वह जब दुःखी होती तो लड्डू गोपाल के सम्मुख बैठ कर उनसे बात करने लगती और कहती की भाई तुम मेरे साथ खेलने क्यों नहीं आते, सब बच्चे मुझ को चिढ़ाते है...
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मेरा उपहास करते है, मुझको अपने साथ भी नहीं खिलाते, में अकेली रहती हूँ, तुम क्यों नहीं आते। क्या तुम मुझ से रूठ गए हो, जो एक बार भी घर नहीं आते, मैने तो तुम को कभी देखा भी नहीं।
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अपनी बाल कल्पनाओं में खोई चंदा लड्डू गोपाल से अपने मन का सारा दुःख कह देती। चंदा का प्रेम निश्च्छल था, वह अपने भाई को पुकारती थी। उसके प्रेम के आगे भगवान भी नतमस्तक हो जाते थे, किन्तु उन्होंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया।
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एक दिन चंदा ने अपनी दादी से पूछा.. दादी मेरे भाई घर क्यों नहीं आते, वह कहाँ रहते हैं। तब दादी ने उसको टालने के उद्देश्य से कहा तेरा भाई जंगल में रहता है, एक दिन वह अवश्य आएगा।
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चंदा ने पूछा क्या उसको जंगल में डर नहीं लगता, वह जंगल में क्यों रहता है। तब दादी ने उत्तर दिया नहीं वह किसी से नहीं डरता, उसको गांव में अच्छा नहीं लगता इसलिए वह जंगल में रहता है।
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धीर-धीरे रक्षा बंधन का दिन निकट आने लगा, गाँव में सभी लड़कियों ने अपने भाइयों के लिए राखियां खरीदी, वह चंदा को चिढ़ाने लगी कि तेरा तो कोई भाई नहीं तू किसको राखी बंधेगी।
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अब चंदा का सब्र टूट गया वह घर आकर जोर जोर से रोने लगी, दादी के पूंछने पर उसने सारी बात बताई, तब उसकी दादी भी बहुत दुःखी हुई उसने चंदा को प्यार से समझाया कि मेरी बच्ची तू रो मत, तेरा भाई अवश्य आएगा,
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किन्तु चंदा का रोना नहीं रुका वह लड्डू गोपाल की प्रतिमा के पास जाकर उससे लिपट कर जोर-जोर से रोने लगी और बोली की भाई तुम आते क्यों नहीं, सब भाई अपनी बहन से राखी बंधवाते हैं, फिर तुम क्यों नहीं आते।
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उधर गोविन्द चंदा की समस्त चेष्टाओं के साक्षी बन रहे थे। रोते-रोते चंदा को याद आया कि दादी ने कहा था कि उसका भाई जंगल में रहता है, बस फिर क्या था वह दादी को बिना बताए नंगे पाँव ही जंगल की और दौड़ पड़ी, उसने मन में ठान लिया था कि वह आज अपने भाई को लेकर ही आएगी।
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जंगल की काँटों भरी राह पर वह मासूम दौड़ी जा रही थी, श्री गोविन्द उसके साक्षी बन रहे थे। तभी श्री हरी गोविन्द पीढ़ा से कराह उठे उनके पांव से रक्त बह निकला, आखिर हो भी क्यों ना श्री हरी का कोई भक्त पीढ़ा में हो और भगवान को पीड़ा ना हो यह कैसे संभव है, जंगल में नन्ही चंदा के पाँव में काँटा लगा तो भगवान भी पीढ़ा कराह उठे।
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उधर चंदा के पैर में भी रक्त बह निकला वह वही बैठ कर रोने लगी, तभी भगवान ने अपने पाँव में उस स्थान पर हाथ फैरा जहा कांटा लगा था, पलक झपकते है चंदा में पाँव से रक्त बहना बंद हो गया और दर्द भी ना रहा वह फिर से उठी और जंगल की और दौड़ चली।
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इस बार उसका पाँव काँटों से छलनी हो गया किन्तु वह नन्ही सी जान बिना चिंता किये दौड़ती रही उसको अपने भाई के पास जाना था अंततः एक स्थान पर थक कर रुक गई और रो-रो कर पुकारने लगी भाई तुम कहाँ हों, तुम आते क्यों नहीं।
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अब श्री गोविन्द के लिए एक पल भी रुकना कठिन था, वह तुरंत उठे और एक ग्यारहा -बारहा वर्ष के सुन्दर से बालक का रूप धारण किया तथा पहुँच गए चंदा के पास।
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उधर चंदा थक कर बैठ गई थी और सर झुका कर रोये जा रही थी तभी उसके सर पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ। और एक आवाज सुनाई दी, "में आ गया मेरी बहन, अब तू ना रो"
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चंदा ने सर उठा कर उस बालक को देखा और पूंछा क्या तुम मेरे भाई हो ? तब उत्तर मिला "हाँ चंदा, में ही तुम्हारा भाई हूँ" यह सुनते ही चंदा अपने भाई से लिपट गई और फूट फूट कर रोने लगी।
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तभी भक्त और भगवान के मध्य भाव और भक्ति का एक अनूठा दृश्य उत्त्पन्न हुआ , भगवान वही धरती पर बैठ गए उन्होंने नन्ही चंदा के कोमल पैरो को अपने हाथो में लिया और उसको प्रेम से देखा।
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वह छोटे-छोटे कोमल पांव पूर्ण रूप से काँटों से छलनी हो चुके थे उनमे से रक्त बह रहा था, यह देख कर भगवान की आँखों से आंसू बह निकले उन्होंने उन नन्हे पैरो को अपने माथे से लगाया और रो उठे,
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अद्भुद दृश्य, बहन भाई को पाने की प्रसन्नता में रो रही थी और भगवान अपने भक्त के कष्ट को देख कर रो रहे थे। श्री हरी ने अपने हाथो से चंदा के पैरो में चुभे एक एक कांटे को बड़े प्रेम से निकाला फिर उसके पैरो पर अपने हाथ का स्पर्श किया, पलभर में सभी कष्ट दूर हो गया।
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चंदा अपने भाई का हाथ पकड़ कर बोली भाई तुम घर चलो, कल रक्षा बंधन है, में भी रक्षा बंधन करुँगी। भगवान बोले अब तू घर जा दादी प्रतीक्षा कर रही होगी, में कल प्रातः घर अवश्य आऊंगा। ऐसा कहकर उसको विश्वाश दिलाया और जंगल के बाहर तक छोड़ने आए।
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अब चंदा बहुत प्रसन्न थी उसकी सारी चिंता मिट गई थी, घर पहुंची तो देखा कि दादी का रो रो कर बुरा हाल था चंदा को देखते ही उसको छाती से लगा लिया। चंदा बहुत पुलकित थी बोली दादी अब तू रो मत कल मेरा भाई आएगा, में भी रक्षा बंधन करुँगी।
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दादी ने अपने आंसू पोंछे उसने सोंचा कि जंगल में कोई बालक मिल गया होगा जिसको यह अपना भाई समझ रही है, चंदा ने दादी से जिद्द करी और एक सुन्दर सी राखी अपने भाई के लिए खरीदी।
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अगले दिन प्रातः ही वह नहा-धो कर अपने भाई की प्रतीक्षा में द्वार पर बैठ गई, उसको अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थोड़ी देर में ही वह बालक सामने से आते दिखाई दिया, उसको देखते ही चंदा प्रसन्नता से चीख उठी " दादी भाई आ गया" और वह दौड़ कर अपने भाई के पास पहुँच गई, उसका हाथ पकड़ कर घर में ले आई।
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अपनी टूटी-फूटी चारपाई पर बैठाया बड़े प्रेम से भाई का तिलक किया आरती उतारी और रक्षा बंधन किया। सुन्दर राखी देख कर भाई बहुत प्रसन्न था, भाई के रूप में भगवान उसके प्रेम को देख कर विभोर हो उठे थे, अब बारी उनकी थी।
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भाई ने अपने साथ लाए झोले को खोला तो खुशिओं का अम्बार था, सुन्दर, कपडे, मिठाई, खिलोने, और भी बहुत कुछ। चंदा को मानो पंख लग गए थे। उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था।
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कुछ समय साथ रहने के बाद वह बालक बोला अब मुझको जंगल में वापस जाना है। चंदा उदास हो गई, तब वह बोला तू उदास ना हो, आज से प्रतिदिन में तुमसे मिलने अवश्य आऊंगा। अब वह प्रसन्न थी। बालक जंगल लौट गया।
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उधर दादी असमंजस में थी कौन है यह बालक, उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किन्तु हरी के मन की हरी ही जाने।
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भाई के जाने के बाद जब चंदा घर में वापस लौटी तो एकदम ठिठक गई उसकी दृष्टि लड्डू गोपाल की प्रतीमा पर पड़ी तो उसने देखा कि उनके हाथ में वही राखी बंधी थी जो उसने अपने भाई के हाथ में बांधी थी।
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उसने दादी को तुरंत बुलाया यह देख कर दादी भी अचम्भित रह गई, किन्तु उसने बचपन से कृष्ण की भक्ति करी थी वह तुरंत जान गई कि वह बालक और कोई नहीं स्वयं श्री हरी ही थे, वह उनके चरणो में गिर पड़ी और बोली, है छलिया, जीवन भर तो छला जीवन का अंत आया तो अब भी छल कर चले गए।
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वह चंदा से बोली अरी वह बालक और कोई नहीं तेरा यही भाई था। यह सुन कर चंदा भगवान की प्रतीमा से लिपट कर रोने लगी रो रो कर बोली कहो ना भाई क्या वह तुम ही थे, में जानती हूँ वह तुम ही थे, फिर सामने क्यों नहीं आते, छुपते क्यों हो।
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दादी पोती का निर्मल प्रेम ऐसा था कि भगवान भी विवश हो गए। लीला धारी तुरंत ही विग्रह से प्रकट हो गए और बोले हां चंदा में ही तुम्हारा वह भाई हूँ, तुमने मुझको पुकारा तो मुझको आना पड़ा। और में कैसे नहीं आता, जो भी लोग ढोंग, दिखावा, पाखंड रचते है उनसे में बहुत दूर रहता हूँ, किन्तु जब मेरा कोई सच्चा भक्त प्रेम भक्ति से मुझको पुकारता है तो मुझको आना ही पड़ता है।
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भक्त और भगवान की प्रेममय लीला चल रही थी, और दादी वह तो भगवान में लीन हो चुकी थी रह गई, चंदा तो उस दिन के बाद से गाँव में उनको किसी ने नहीं देखा, कोई नहीं जान पाया की आखिर दादी-पोती कहा चले गए। प्रभु की लीला प्रभु ही जाने...


*श्रीकृष्ण को प्रेम से जगाओ, आपका भाग्य* *जागेगा।*

*श्रीकृष्ण को प्रेम से जगाओ, आपका भाग्य*
*जागेगा।*
-🌿                   
*श्रीकृष्ण को नित्य स्नान कराओ, तो आपके सब*
*पाप धुल जाएँगे।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को चरणामृत प्रेम से पान कराओ, आपकी*
*मनोवृत्ति बदल जाएगी।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को तिलक लगाओ, आपको सर्वत्र सम्मान*
*मिलेगा।*
-🌿
*श्रीकृष्ण के चरणों का तिलक स्वयं भी लगाओ,*
*आपका मन शांत होगा।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को भोग लगाओ, आपको संसार के सभी*
*भोग मिलेंगे।*
-🌿
*श्रीकृष्ण का प्रसाद स्वयं भी पाओ, आप निष्पाप*
*हो जाओगे।*
-🌿
*श्रीकृष्ण के सम्मुख दीप जलाओ, आपका जीवन*
*प्रकाशमान होगा।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को धूप लगाओ, आपके दुख के बादल स्वत: छट*
*जाएँगे।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को पुष्प अर्पित करो, आपके जीवन की*
*बगिया महकेगी।*
-🌿
*श्रीकृष्ण का भजन-पाठ करो, आपका यश बढ़ेगा।*
-🌿
*श्रीकृष्ण को नित्य प्रणाम करो, संसार आपके आगे*
*झुकेगा।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण के आगे घंटनाद करो, आपकी*
*दुष्प्रवृत्तियाँ दूर होंगी।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण के आगे शंखनाद करो, आपकी काया*
*निरोगी रहेगी।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण को प्रेम से शयन कराओ, आपको चैन की*
*नींद आएगी।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण के दर्शन करने नित्य मंदिर जाओ, आपके*
*दुख में प्रभु दौड़े चले आएँगे।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण को अर्पण कर ही वस्तु का उपभोग करो,*
*आपको परमानंद मिलेगा।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण को लाड़-प्यार से खिलाओ, संसार आप*
*पर रिझेगा।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण से ही माँगो, जो चाहोगे वो आपको*
*मिलेगा। (अन्य से नहीं)🌸*
-
*🌺श्रीकृष्ण का प्रसाद मान* *सुख-दुख भोगो, आप*
*सदा सुखी रहेंगे।🌸*
-🌿
*🌺श्रीकृष्ण का ध्यान करो,* *प्रभु अंत समय तक आपका*
*ध्यान रखेंगे।*
🙏जय श्रीकृष्ण 🙏

अर्थात- जिन सहृदय लोगों के हृदय में परोपकार करने की भावना सदैव जागृत रहती है ; उन्हें दुख और विपत्ति कभी नहीं सताती है ; बल्कि उन्हें पग-पग पर समृद्धि और खुशी प्राप्त होती है । *

*परोपकरणं येषाम् ,*
*जागर्ति हृदये सताम्।*
*नश्यन्ति विपद: तेषाम् ,*
*सम्पद: स्यु: पदे पदे।।*

अर्थात- जिन सहृदय लोगों के हृदय में परोपकार करने की भावना सदैव जागृत रहती है ; उन्हें  दुख और विपत्ति कभी नहीं सताती है ; बल्कि  उन्हें  पग-पग पर समृद्धि और खुशी प्राप्त होती है ।
*

*👦🏻एक बेटे ने पिता से पूछा-* *पापा.. ये 'सफल जीवन' क्या होता है ??🤔*

*👦🏻एक बेटे ने पिता से पूछा-*
*पापा.. ये 'सफल जीवन' क्या होता है ??🤔*

*👴🏼पिता, बेटे को पतंग 🔶🔷 उड़ाने ले गए।* 
*बेटा पिता को ध्यान से पतंग उड़ाते देख रहा था...🤔*

*थोड़ी देर बाद बेटा बोला-*
*पापा.. 😌ये धागे की* *वजह से पतंग अपनी आजादी से और ऊपर की और नहीं जा पा रही है, क्या हम इसे तोड़ दें !!  ये और ऊपर चली जाएगी....🙂*

*👴🏼😌😮पिता ने धागा तोड़ दिया ..*

*पतंग थोड़ा सा और ऊपर गई और उसके बाद लहरा कर नीचे आयी और दूर अनजान जगह पर जा कर गिर गई...💢♨*

*तब पिता ने बेटे को जीवन का दर्शन समझाया...😎*

*बेटा..*
*'जिंदगी में हम जिस ऊंचाई पर हैं..*
*हमें अक्सर लगता की कुछ चीजें, जिनसे हम बंधे हैं वे हमें और ऊपर जाने से रोक रही हैं*
*जैसे :*
            *-घर-⛪*
         *-परिवार-👨‍👨‍👧‍👦*
       *-अनुशासन-🏃🏼*
      *-माता-पिता-👪*
       *-गुरू-और-👵🏻*
          *-समाज-*
*और हम उनसे आजाद होना चाहते हैं...😏*

*वास्तव में यही वो धागे होते हैं जो हमें उस ऊंचाई पर बना के रखते हैं..😮*

*'इन धागों के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे परन्तु बाद में हमारा वो ही हश्र होगा जो बिन धागे की पतंग का हुआ...'🙂*

*"अतः जीवन में यदि तुम ऊंचाइयों पर बने रहना चाहते हो तो, कभी भी इन धागों से रिश्ता मत तोड़ना.."😀*

*"धागे और पतंग जैसे जुड़ाव के सफल संतुलन से मिली हुई ऊंचाई को ही 'सफल जीवन' कहते हैं.."*

पेड़ के नीचे रखी भगवान की टूटी मूर्ति को देख कर समझ आया* *कि* *परिस्थिति चाहे कैसी भी हो* *पर कभी ख़ुद को टूटने नही देना..*

*पेड़ के नीचे रखी भगवान की टूटी मूर्ति को देख कर समझ आया*
*कि*
*परिस्थिति चाहे कैसी भी हो*
*पर कभी ख़ुद को टूटने नही देना..*
*वर्ना ये दुनिया जब टूटने पर भगवान को घर से निकाल सकती है तो फिर हमारी तो औकात ही क्या है*

 *जिंदगी को खुला छोड़ दो जीने के लिए,क्योंकि बहुत सम्भाल के रखी हुई चीज वक़्त पर नहीं मिलती...”॥*


*🔱जब लंकाधीश रावण पुरोहित बने (अद्भुत प्रसंग, भावविभोर करने वाला प्रसंग)



*🔱जब लंकाधीश रावण पुरोहित बने

(अद्भुत प्रसंग, भावविभोर करने वाला प्रसंग)

बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की #इरामावतारम्' मे यह कथा है।

रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..।

जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं--

         खर दूसन मो   सम   बलवंता ।
         तिनहि को मरहि बिनु भगवंता।।

रावण के पास जामवंत जी को #आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..।
जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।

रावण ने सविनय कहा–   "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।"

जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है।
" मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।"

प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया

  "क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?"

"बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I"
जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?

रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।"

जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए।

अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है।

" .यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। "

स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य।
 यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया।
. स्वस्थ कण्ठ से "सौभाग्यवती भव" कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।

सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे ।

" आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने  विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे ।

जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

" दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! "
दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया ।

सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं।

 भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा

" यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।"

 श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं।

" अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?"

" कोई उपाय आचार्य ?"
                       
" आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।"

श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे।
           
 " अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..."

आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया।
गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ?

यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे।

आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।"

 जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया ।

   यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया।

 आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।.

अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की..

     श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?"

पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने।

" घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..."

" लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।"

"आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी।
         

"ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी--
         
            “रघुकुल रीति सदा चली आई ।
            प्राण जाई पर वचन न जाई ।”
                     
यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
                 

रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ?


(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई था)
       

Monday, August 27, 2018

*जितने भी शरीरधारी हैं, उनको प्राणी कहते हैं। प्राणी का अर्थ है- जिसके अंदर जान होती है, जिसके अंदर प्राण होता है।



 *जितने भी शरीरधारी हैं, उनको प्राणी कहते हैं। प्राणी का अर्थ है- जिसके अंदर जान होती है, जिसके अंदर प्राण होता है। जिन्दगी तो किसी भी रूप में हो सकती है और जिन्दगी के लिए लोग कुछ भी करते हैं। चौरासी लाख तरह के प्राणी होते हैं, सब अपनी तरह से जीते हैं। जिन्दगी के लिए जो करना है, उसमें सोचने की जरूरत नहीं है। जैसे पानी का थ्सवू ;बहावद्ध अपने आप नीचे की तरफ होता है।*

*पानी को कोई कुछ भी करे लेकिन वो नीचे को ही चलेगा। कोई कहे कि मैंने पानी को नीचे की गति दी है, तो कहोगे कि पानी का तो स्वभाव है, कि वह नीचे की तरफ जाएगा। ऐसे ही कोई कहे कि मैंने जिन्दगी के लिए ऐसा किया-वैसा किया, तो ये तुमने कुछ नहीं किया। ये तो होना ही था। छोटे-छोटे कीड़े-मकौडे से लेकर बडे+-बड़े विद्वान तक कैसे जीते हैं? कैसे खाते हैं? कैसे पीते हैं। उसमें कोई खास अहमियत की बात नहीं होती। उसमें तुम कहीं नहीं हो ये तुम क्या खाते हो, क्या पीते हो, क्या पहनते हो। ये कोई महत्व की चीज नहीं है। ये सारी भोग की चीजें हैं। इसमें दिमांग लगाने की कोई जरूरत ही नहीं है। ये अपने आप होता है।*

 *आज का दिन शुभ मंगलमय हो।*

रोनाल्ड निक्सन जो कि एक अंग्रेज थे कृष्ण प्रेरणा से ब्रज में आकर बस गये …


रोनाल्ड निक्सन जो कि एक अंग्रेज थे कृष्ण प्रेरणा से ब्रज में आकर बस गये …
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उनका कन्हैया से इतना प्रगाढ़ प्रेम था कि वे कन्हैया को अपना छोटा भाई मानने लगे थे……
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एक दिन उन्होंने हलवा बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाया पर्दा हटाकर देखा तो हलवे में छोटी छोटी उँगलियों के निशान थे ……
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जिसे देख कर 'निक्सन' की आखों से अश्रु धारा बहने लगी …
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क्यूँ कि इससे पहले भी वे कई बार भोग लगा चुके थे पर पहलेकभी ऐसा नहीं हुआ था |
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और एक दिन तो ऐसी घटना घटी कि सर्दियों का समय था, निक्सन जी कुटिया के बाहर सोते थे |
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ठाकुर जी को अंदर सुलाकर विधिवत रजाई ओढाकर फिर
खुद लेटते थे |
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एक दिन निक्सन सो रहे थे……
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मध्यरात्रि को अचानक उनको ऐसा लगा जैसे किसी ने उन्हें
आवाज दी हो... दादा ! ओ दादा !
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उन्होंने उठकर देखा जब कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे हो
सकता हमारा भ्रम हो, थोड़ी देर बाद उनको फिर सुनाई दिया.... दादा ! ओ दादा !
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उन्होंने अंदर जाकर देखा तो पता चला की वे ठाकुर जी को रजाई ओढ़ाना भूल गये थे |
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वे ठाकुर जी के पास जाकर बैठ गये और बड़े प्यार से बोले...
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''आपको भी सर्दी लगती है क्या...?''
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निक्सन का इतना कहना था कि ठाकुर जी के श्री विग्रह से आसुओं की अद्भुत धारा बह चली...
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ठाकुर जी को इस तरह रोता देख निक्सनजी भी फूट फूट कर रोने लगे.....
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उस रात्रि ठाकुर जी के प्रेम में वह अंग्रेज भक्त इतना रोया कि उनकी आत्मा उनके पंचभौतिक शरीर को छोड़कर बैकुंठ को चली गयी |
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हे ठाकुर जी ! हम इस लायक तो नहीं कि ऐसे भाव के साथ आपके लिए रो सकें.....
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पर फिर भी इतनी प्रार्थना करते हैं कि....
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''हमारे अंतिम समय में हमे दर्शन भले ही न देना पर……
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अंतिम समय तक ऐसा भाव जरूर दे देना जिससे आपके लिए तडपना और व्याकुल होना ही हमारी मृत्यु का कारण बने....''.
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बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय.
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पंडित जी पूजा करा रहे थे। लोग हाथ जोड़े बैठे थे। पूजा के बाद बारी आई हवन की। पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”

पंडित जी पूजा करा रहे थे। लोग हाथ जोड़े बैठे थे।

पूजा के बाद बारी आई हवन की।
पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई।
पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”

जैसे ही पंडित जी स्वाहा कहते, लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। बाकी लोगों को अग्नि में हवन सामग्री डालने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, और गृह मालिक को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।

कई बार स्वाहा-स्वाहा हुआ। मैं भी हवन सामग्री अग्नि में डाल रहा था। मैंने नोट किया कि हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए।
मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई।

मैंने देखा कि जो लोग इस आशंका में हवन सामग्री बचाए बैठे थे कि कहीं कम न पड़ जाए, उन सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।

हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने सभी लोगों से कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे भी अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें।

एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। अब पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया।

एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।

सभी कह रहे थे कि बेकार ही हवन सामग्री हमने बचाई थी। सही अनुपात में डाल दिए होते तो कमरे में धुंआ नहीं फैलता। घी को भी बचाने की जगह सही अनुपात में खर्च करना चाहिए था।

खैर, अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था। हम सभी लोग गर्मी में कमरे से बाहर खड़े रहे। काफी देर तक हमें इंतज़ार करना पडा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।

बस मेरी कहानी यहीं रुक जाती है।
कल मैं सोच रहा था कि उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी।

ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि हर पूजा खत्म होनी होती है।

हम ज़िंदगी जीने की तैयारी में ढेरों चीजें जुटाते रहते हैं, पर उनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। हम कपड़े खरीद कर रखते हैं कि फलां दिन पहनेंगे। फलां दिन कभी नहीं आता। हम पैसों का संग्रह करते हैं  ताकि एक दिन हमारे काम आएगा। वो एक दिन नहीं आता।

ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा।

अगर ज़िंदगी की हवन सामग्री का इस्तेमाल हम पूजा के समय सही अनुपातम में करते चले जाएं, तो न धुंआ होगी, न गर्मी। न आंखें जलेंगी, न मन।

ध्यान रहे, संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही होती है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो जाता है।
अच्छी ज़िंदगी वही होती है, जिसमें हमें संग्रह करने के लिए मेहनत न करनी पड़े।
         
     🌺🌺🙏🙏🌺🌺

*स्त्रियां नारियल क्यों नहीं फोड़ती आओ जानें

*स्त्रियां नारियल क्यों नहीं फोड़ती आओ जानें।
8नारियल को श्रीफल के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है की जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर अवतार लिया तो वे अपने साथ तीन चीजें- लक्ष्मी, नारियल का वृक्ष तथा कामधेनु लाए इसलिए नारियल के वृक्ष को श्रीफल भी कहा जाता है। श्री का अर्थ है लक्ष्मी अर्थात नारियल लक्ष्मी व विष्णु का फल। नारियल में त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास माना गया है।
श्रीफल भगवान शिव का प्रम प्रिय फल है। मान्यता अनुसार नारियल में बनी तीन आंखों को त्रिनेत्र के रूप में देखा जाता है। श्रीफल खाने से शारीरिक दुर्बलता दूर होती है। इष्ट को नारियल चढ़ाने से धन संबंधी समस्याएं दूर हो जाती हैं।भारतीय पूजन पद्धति में नारियल अर्थात श्रीफल का महत्वपूर्ण स्थान है।कोई भी वैदिक या दैविक पूजन प्रणाली श्रीफल के बलिदान के बिना अधूरी मानी जाती है।यह भी एक तथ्य है कि महिलाएं नारियल नहीं फोड़तीं। श्रीफल बीज रूप है, इसलिए इसे उत्पादन अर्थात प्रजनन का कारक माना जाता है। श्रीफल को प्रजनन क्षमता से जोड़ा गया है। स्त्रियों बीज रूप से ही शिशु को जन्म देती हैं और इसलिए नारी के लिए बीज रूपी नारियल को फोड़ना अशुभ माना गया है। देवी-देवताओं को श्रीफल चढ़ाने के बाद पुरुष ही इसे फोड़ते हैं। शनि की शांति हेतु नारियल के जल से शिवलिंग पर रुद्रभिषेक करने का शास्त्रीय विधान भी है।भारतीय वैदिक परंपरा अनुसार श्रीफल शुभ, समृद्धि, सम्मान,उन्नति और सौभाग्य का सूचक माना जाता है। किसी को सम्मान देने के लिए उनी शॉल के साथ श्रीफल भी भेंट किया जाता है। भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों में भी शुभ शगुन के तौर पर श्रीफल भेंट करने की परंपरा युगों से चली आ रही है। विवाह की सुनिश्चित करने हेतु अर्थात तिलक के समय श्रीफल भेंट किया जाता है। बिदाई के समय नारियल व धनराशि भेंट की जाती है। यहां तक की अंतिम संस्कार के समय भी चिता के साथ नारियल भी जलाए जाते है।
         

राधारानी के उन्नीस चरण मंगल चिन्ह


                     जय श्री कृष्ण।।

         राधारानी के उन्नीस चरण  मंगल चिन्ह

         श्रीराधा जी बांये पैर के 11 चिह्न सज्जित हैं :-   जौ,  चक्र,  छत्र,  कंकण,  ऊर्ध्वरेखा, कमल,  ध्वजा , अर्धचंद्र,  अंकुश,   पुष्प, पुष्पलता,
अंगूठे  में  जौ, उसके नीचे  चक्र, फिर  छत्र, कंकण,  बगल में  ऊर्ध्वरेखा,  मध्य मे  कमल, नीचे ध्वजा,  अंकुश,   ऊंगलियों मे  अर्धचन्द्र,  पुष्प  और  लता   के चिह्न हैं।

        1. जौ  - जौ  सांसारिक मोहमाया को छोड़कर इन चरणकमलों की शरण लेने से सारे पाप-ताप मिट जाते हैं। जौ का चिह्न सर्वविद्या और सिद्धियों का दाता है, इसके ध्यान से भक्त जन्म मरण के छुटकर जौ के दानो के समान बहुत छोटी हो जाती है।

        2. चक्र - राधा कृष्ण के चरण कमल का ध्यान  काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, आदि से भक्तों के मन की कामरूपी निशाचर को मारकर अज्ञान का नाश कर देता है।

        3. छत्र – शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों कि अविराम वर्षा से बचे रहते है।

       4. कंकण  -  निकुंजलीला में कंकणों के मुखरित श्रीराधा ने कंकण उतारकर उसके चिह्न अपने चरणकमल में धारण किया है।

       5. उर्ध्व रेखा – जो भी राधाश्याम के पद कमल से लिपटे रहते है, यह संसार रूपी सागर पार कर श्रीराधा ऊर्ध्वरेखा नामक पुल से संसार के सागर से पार हो जाते है।

       6. कमल -श्री चरण कमल चिह्न का भाव सभी प्रकार के वैभव व नवनिधि का दाता है। इससे भक्तो के मन में प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है।

      7. ध्वज – भय से  सुरक्षा करता है कलियुग मे कुटिल गति देख मनुष्य शीघ्र भयभीत हो जायेगा। उसकी निर्भयता और विजय हेतु श्रीराधा ने अपने चरण में ध्वज धारण किया है।

      8. पुष्प - श्रीराधा के चरण कठोर न प्रतीत हों इस हेतु पुष्पचिह्न धारण करती हैं। इसका ध्यान करने से श्रीराधाजी की भक्ति प्राप्त करता है।

       9. पुष्पलता  - श्रीराधा के चरण में लता चिह्न, और श्रीकृष्ण के चरण में वृक्ष चिह्न है। जिस प्रकार लता वृक्ष का आश्रय लेकर सदैव ऊपर चढ़ती चली जाती है उसी प्रकार श्रीराधा सदैव श्रीकृष्णाश्रय में रहती हैं। इसका ध्यान करने से सदैव उन्नति होती है।

      10. अर्धचंद्र - अर्ध-चन्द्र निष्कलंक माना गया है। इसलिये श्रीराधा जी ने अपने चरण मे धारण कर चन्द्र को शोभित किया है अर्ध-चन्द्र के चिह्न का ध्यान त्रिताप को नष्ट करके भक्ति और समृद्धि को बढ़ाता है।

       11. अंकुश - अंकुश मन रूपी गज को वश में करता है उसे सही मार्ग दिखाता है इसलिये श्रीराधा के चरणों में अंकुश चिह्न का ध्यान करना चाहिए।

        राधारानी जी के दाये चरण आठ मंगल चिन्ह से अलंकृत है।

       शंख,   पर्वत ,   रथ,   मीन,   वेदी,    गदा, पाश,    कुंडल.

     दो उंगलियों के नीचे   पर्वत,    फिर   गिरी, शंख ,   गदा,    वेदी,   कुंडल,   पाश,   मीन इस प्रकार कुल 8 चिह्न हैं।

       १. शंख - शंख विजय का प्रतीक है यह बताता है श्री राधा चरणकमल ग्रहण करने पर व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते है और अभय दान प्राप्त करते है. इसलिए श्रीराधा के चरण में जलतत्त्वरूपी शंख का चिह्न है।

        २. पर्वत  -   गिरी-गोवर्धन की गिरिवर के रूप में व्रज में सर्वत्र पूजा होती है,  गिरी-गोवर्धन राधिका की  चरण सेवा करते है. इसलिये गिरिगोवर्धननाथ (श्रीकृष्ण) हैं, वे श्रीराधा की आराधना करते हैं। श्रीराधा की इसी महिमा से ही चरण में पर्वत का चिह्न है।

        ३. रथ -   मन रूपी रथ को राधा के चरणकमलों में लगाकर सुगमता पूर्वक नियंत्रित किया जा  सकता है. इस हेतु श्रीराधा के चरण में रथ के चिह्न का भाव है क्योंकि संसार रथरूप है जो निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा है. उसकी सारथि श्रीयुगलस्वरूप श्रीराधाकृष्ण हैं। श्रीराधा के रथ चिह्न का ध्यान करने से संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

       ४. मीन –     जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी तरह भक्त भी राधा-श्याम के बिना नहीं रह सकते. जैसे जल के बिना मछली जिन्दा नहीं रहती उसी प्रकार श्रीराधा श्रीकृष्ण भी अभिन्न हैं। श्री चरण में मछली का चिह्न इसी भाव को प्रकट करता है।

        ५. वेदी -   श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनों अभिन्न हैं। श्रीकृष्ण यज्ञरूप हैं तो श्रीराधा स्वाहा होता है, इसलिए श्रीराधा के चरणों में वेदी का चिह्न है।

        ६.गदा -    श्रीकृष्ण विष्णुरूप में गदाधारी हैं, इसलिए श्रीराधा के चरणों में गदा का चिह्न है। इसके ध्यान से शत्रु नष्ट हो जाते हैं, पितरों की सद्गति होती है।

         ७. पाश -     श्रीराधा के चरणकमल में पाश-चिह्न का भाव है, जो भी इसका ध्यान करता है शरण प्रेमपाश में फंसकर भवसागर से तर जाता है।

        ८. कुंडल -      श्रीराधा के चरणों के नूपुर से जो कलरव होता है, वही विश्व में शब्दब्रह्मरूप में व्याप्त है। उनकी मधुर झंकार सुनने के लिए श्रीकृष्ण के कान सदैव तरसते रहते हैं इसलिए श्रीकृष्ण के कुंडल के चिह्न श्रीराधा के चरणों में हैं। इनके ध्यान से साधक को सुख प्राप्त होता है।         
                                ।। जय श्री कृष्ण।।