Monday, August 20, 2018

श्री शिवपुराण - महात्म्य ( पोस्ट 19 ) विधेश्वर संहिता अध्याय 15

श्री शिवपुराण - महात्म्य  ( पोस्ट 19 )

                              विधेश्वर संहिता

                                अध्याय 15

विषय - देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार

ऋषियों ने कहा – समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमश: देश, काल आदिका वर्णन करें |

सूतजी बोले – महर्षियों ! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता हैं अर्थात अपने घरमें किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं | गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दसगुना फल देना हैं | जलाशय का तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दसगुना फल देनेवाला होता हैं | देवालय को उससे भी दसगुने महत्त्व का स्थान जानना चाहिये | देवालय से भी दसगुना उत्कृष्ट हैं तीर्थनदी का तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता हैं सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ | गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा – इन सात नदियों को सप्तगंगा कहा गया हैं | समुद्र के तटका स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दसगुना पावन हैं | सबसे अधिक महत्त्व का वह स्थान जानना चाहिये, जहाँ मन लग जाय |

यहाँतक देश का वर्णन हुआ, अब कालका तारतम्य बताया जाता हैं – सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देनेवाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये | त्रेतायुग में उसका तीन चौथाई फल मिलता हैं | द्वापर में सदा आधे ही फलकी प्राप्ति कही गयीं हैं | कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतनेपर उस चौथाई फलमें से भी एक चतुर्थांस कम हो जाता हैं | शुद्ध अंत:करणवाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देनेवाला होता हैं |

विद्वान ब्राह्मणों ! सूर्य-संक्रांति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दसगुना फल देनेवाला होता हैं, यह जानना चाहिये | उससे भी दसगुना महत्त्व उस कर्म का हैं, जो विषुव नामक (ज्योतिष के अनुसार वह समय जब कि सूर्य विषुव रेखापर पहुँचता है और दिन तथा रात दोनों बराबर होते हैं | वर्ष में दो बार आता हैं – एक तो सौर चैत्रमास की नवमी तिथि या अंग्रेजी २१ मार्च को और दूसरा सौर आश्विन की नवमी तिथि या अंग्रेजी २२ सितंम्बर को | ) योग में किया जाता हैं | दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन अर्थात कर्ककी संक्रान्ति में किये हुए पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दसगुना माना गया हैं | उससे भी दसगुना मकर-संक्रान्ति में और उससे भी दसगुना चंद्रग्रहण में किये हुए पुण्य का महत्त्व हैं | सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम हैं | उसमें किये गये पुण्यकर्म का फल चंद्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्रा में होता हैं, इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं | जगद्ररूपी सूर्य का राहूरूपी विष से संयोग होता हैं, इसलिये सूर्यग्रहण का समय रोग प्रदान करनेवाला हैं | अत: उस विष की शान्ति के लिये उससमय स्नान, दान और जप करे | यह काल विषकी शान्ति के लिये उपयोगी होने के कारण पुण्यप्रद माना गया हैं | जन्मनक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ति के दिनका समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता हैं | परन्तु महापुरुषों के संगका काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं |

तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ यति – ये पूजाके पात्र हैं; क्योंकि ये पापों के नाश में कारण होते हैं | जिसने चौबीस लाख गायत्री का जप कर लिया हो, वह ब्राह्मण भी पुजाका उत्तम पात्र हैं | वह सम्पूर्ण फलों और भोगों को देने में समर्थ हैं | जो पतन से त्राण करता अर्थात नरक में गिरने से बचाता हैं, उसके लिये इसी गुण के कारण शास्त्र में ‘पात्र’ शब्द का प्रयोग होता हैं | यह दाता का पातक से त्राण करने के कारण ‘पात्र’ कहलाता हैं |

गायत्री अपने गायक का पतन से त्राण करती हैं; इसीलिये वह ‘गायत्री’ कहलाती हैं | जैसे इस लोकमें जो धनहीन हैं, वह दूसरे को धन नहीं देता – जो यहाँ धनवान हैं, वह दूसरेको धन दे सकता हैं, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा हैं, वही दूसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता हैं | जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया हैं, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता हैं | इसलिये दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र हैं | ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता हैं |

स्री हो या पुरुष – जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र हैं | जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना माँगे ही दे दी जाय तो दाता को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता हैं, ऐसी महर्षियों की मान्यता है | जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दान आधा ही फल देनेवाला बताया गया है | अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता हैं | विप्रवरो ! जो जातिमात्र से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता हैं, उसे दिया हुआ धनका दान दाता को इस भूतलपर दस वर्षोतक भोग प्रदान करनेवाला होता है | वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मणको दिया जाय तो वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षोतक दिव्य भोग देनेवाला होता है | शील और उच्छ वृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता हैं | उसका दान दाता को पूर्ण फल देनेवाला बताया गया है | क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता हैं | धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन, पिता एवं पति से मिला हुआ हो, उनके लिये वह उत्तम द्रव्य है |

गौ आदि बारह वस्तुओं का चैत्र आदि बारह महीनों में क्रमश: दान करना चाहिये | गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चाँदी, नमक, कोहड़ा और कन्या – ये ही वे बारह वस्तुएँ हैं | इनमें गोदान से कायिक, वाचिक और मानसिक पापोंका निवारण तथा कायिक आदि पुण्यकर्मों की पुष्टि होती है | ब्राह्मणों ! भूमिका दान इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा (आश्रय) की प्राप्ति करानेवाला हैं | तिल का दान बलवर्धक एवं मृत्युका निवारक होता हैं | सुवर्ण का दान जठराग्नि को बढानेवाला तथा वीर्यदायक हैं | घी का दान पुष्टिकारक होता है | वस्त्र का दान आयु की वृद्धि करानेवाला हैं, ऐसा जानना चाहिये | धान्य का दान अन्नदान मधुर भोजन की प्राप्ति करानेवाला होता है | चाँदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है | लवण का दान षडरस भोजन की प्राप्ति कराता हैं | सब प्रकार का दान सारी समृद्धि की सिद्धि के लिये होता हैं | विज्ञपुरुष कुष्मांड के दान को पुष्टिदायक मानते हैं | कन्या का दान आजीवन भोग देनेवाला कहा गया हैं | ब्राह्मणों ! वह लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति करानेवाला हैं |

विद्वान पुरुष को चाहिये कि जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इन्दिर्यों की तृप्ति होती हैं, उनका सदा दान करे | श्रोत आदि दस इन्द्रियों के जो शब्द आदि दस विषय हैं, उनका दान किया जाय तो वे भोगों की प्राप्ति कराते हैं तथा दिशा आदि इन्द्रिय देवताओं को संतुष्ट करते हैं | वेद और शास्त्र को गुरुमुख से ग्रहण करके गुरु के उपदेश से अथवा स्वयं ही बोध प्राप्त करने के पश्चात जो बुद्धि का यह निश्चय होता हैं कि ‘कर्मों का फल अवश्य मिलता है’, इसीको उच्चकोटि की ‘आस्तिकता’ कहते हैं | भाई-बंधू अथवा राजा के भय से जी आस्तिकता-बुद्धि या श्रद्धा होती है, वह कनिष्ठ श्रेणी की आस्तिकता है | जो सर्वथा दारिद्र हैं, इसलिये जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव हैं, वह वाणी अथवा कर्म (शरीर) द्वारा यजन करे | मन्त्र, स्तोत्र और जप आदि को वाणीद्वारा किया गया यजन समझना चाहिये तथा तीर्थयात्रा और व्रत आदि को विद्वान पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं | जिस किसी भी उपाय से थोडा या बहुत, देवतार्पण बुद्धि से जो कुछ भी दिया अथवा किया जाय, वह दान या सत्कर्म भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ होता हैं | तपस्या और दान – ये दो कर्म मनुष्य को सदा करने चाहिये तथा ऐसे गृह का दान करना चाहिये, जो अपने वर्ण (चमक-दमक या सफाई) और गुण (सुख-सुविधा) से सुशोभित हो | बुद्धिमान पुरुष देवताओं की तृप्ति के लिये जो कुछ देते हैं, वह अतिशय मात्रा में और सुख प्रकार के भोग प्रदान करनेवाला होता है | उस दान से विद्वान पुरुष इहलोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होनेवाला भोग पाता है | ईश्वरार्पण बुद्धिसे यज्ञ-दान आदि कर्म करके मनुष्य मोक्ष फल का भागी होता है |

                      – ॐ नम: शिवाय –

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