Saturday, August 18, 2018

श्री शिवपुराण - महात्म्य ( पोस्ट 18 ) विधेश्वर संहिता अध्याय 14

श्री शिवपुराण - महात्म्य  ( पोस्ट 18 )

                         विधेश्वर संहिता

                           अध्याय 14

  विषय -  अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन, भगवान शिव के द्वारा सातों वारों का निर्माण तथा उनमें देवाराधन से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का कथन

  ऋषियोंने कहा – प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्तिका हमारे समक्ष क्रमश: वर्णन कीजिये |

  सूतजी बोले – महर्षियों ! गृहस्थ पुरुष अग्निमें सायंकाल और प्रात:काल जो चावल आदि द्रव्यकी आहुति देता हैं, उसीको अग्नियज्ञ कहते हैं | जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधाका आधान ही अग्नियज्ञ हैं | वे समिधाका ही अग्नि में हवन करें | ब्राह्मणों ! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करनेवाले द्विजों का जबतक विवाह न हो जाय और वे ओपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्निमें समिधा की आहुति, व्रत आदिका पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य हैं (यही उनके लिये अग्नियज्ञ हैं ) | द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपने आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया हैं, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ हैं कि ये विहित समयपर हितकर, परिमित और पवित्र अन्नका भोजन कर लें | ब्राह्मणों ! सायंकाल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती हैं, ऐसा जानना चाहिये और प्रात:काल सूर्यदेव को दी हुई, आहुति आयुकी वृद्धि करनेवाली होती हैं, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये | दिनमें अग्निदेव सुर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं | अत: प्रात:काल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ के ही अंतर्गत हैं | इसप्रकार यह अग्नियज्ञ का वर्णन किया गया |

   इंद्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्निमें जो आहुति दी जाती हैं, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये | स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये | लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूड़ाकरण आदि संस्कार-निमित्तक हवन-कर्म है, उन्हें भी देवयज्ञ के ही अंतर्गत जानना चाहिये | अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनो | द्विजको चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरंतर ब्रह्मयज्ञ करे | वेदों का जो नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया हैं, प्रात: नित्यकर्म के अनन्तर सायंकालतक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता हैं | उसके बाद रातमे इसका विधान नहीं हैं |

अग्निके बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता हैं, इसे तुमलोग श्रद्धासे और आदरपूर्वक सुनो | सृष्टिके आरम्भमें सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजीने समस्त लोकों के उपकारके लिये वारों की कल्पना की | ये भगवान शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं | सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं | उन भगवान ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला हैं | तत्पश्चात अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है | जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालककी रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की | तत्पश्चात सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छासे लोकरक्षक भगवान विष्णु का वार बनाया | इसके बाद सबके स्वामी भगवान शिवने पुष्टि और रक्षा के लिये आयु:कर्ता त्रिलोकस्त्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्यकी सिद्धि हो सके | इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पाप की रचना हो जानेपर उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान शिव ने इंद्र और यम के वारों का निर्माण किया | ये दोनों वार क्रमश: भोग देनेवाले तथा लोगों के मृत्यूभयकको दूर करनेवाले हैं | इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक है, भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया | वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं | शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं | शक्तिसम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं | विष्णुवार के स्वामी बुध हैं | इन्द्र्वार के स्वामी शुक्र और यमवार  के स्वामी शनैश्वर हैं | अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फलको देनेवाली होती है |

सूर्य आरोग्य के और चंद्रमा सम्पत्ति के दाता हैं | मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं | बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं | शुक्र भोग देते हैं और शनैश्वर मृत्युका निवारण करते हैं | ये सात वारों के क्रमश: फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीतिसे प्राप्त होते हैं | अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देनेवाले भगवान शिव ही हैं | देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी | उन – उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार हैं | उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार हैं | किसी वेदीपर प्रतिमा में, अग्निमें अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवा प्रकार है |

इनमे पूजाके उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं | पूर्व-पूर्वके अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिये | दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शान्ति के लिये भगवान् सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये | तदनंतर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्षतक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये | इससे यदि प्रबल प्रारब्धका निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगों का नाश हो जाता हैं | इष्टदेव के नाममंत्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं | रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मणों के लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे | यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता हैं तथा इसके द्वारा विशेषरूप से पापों की शान्ति होती हैं | सोमवार को विद्वान पुरुष सम्पत्ति की प्राप्ति के सपत्निक ब्राह्मणों को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये | मंगलवार को रोगों की शान्ति के लिये काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूँग एवं अदरक की दाल आदि से युक्त अन्न ब्राह्मणों को भोजन कराये | बुधवार को विद्वान पुरुष दधियुक्त अन्नसे भगवान् विष्णु का पूजन करे | ऐसा करनेसे सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदि की पुष्ठि होती हैं | जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरूवार को देवताओं की पुष्ठी के लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीरसे यजन-पूजन करे | भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये षडरस युक्त अन्न दे | इसीप्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुंदर वस्त्र आदि का विधान करे | शनैश्वर अपमृत्युका निवारण करनेवाला हैं | उस दिन बुद्धिमान पुरुष रूद्र आदि की पूजा करे | तिल के होमसे, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिलमिश्रित अन्न भोजन कराये | जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल का भागी होगा |

देवताओं के नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण तर्पण आदि में एवं रवि आदि बारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होनेपर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान शिव ही उन-उन देवताओं के रूप में पूजित हो सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं | देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करनेवाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं | शुभ (मांगलिक कर्म) के आरम्भ में और अशुभ (अंत्येष्टि आदि कर्म) के अंत में तथा जन्म-नक्षत्रों के आनेपर गृहस्थ पुरुष अपने घरमें आरोग्य आदि की समृद्धि के लिये सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे | इससे सिद्ध हैं कि देवताओं का यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं | ब्राह्मणों का देवयजन कर्म वैदिक मन्त्र के साथ होना चाहिए | शुद्र आदि दूसरों का देवयज्ञ तांत्रिक विधि से होना चाहिये | शुभ फल की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये | निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे | वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता हैं और बारंबार पुण्यलोकों में नाना प्रकार के फल भोगकर पुन: इस पृथ्वीपर जन्म ग्रहण करता हैं | धनवान पुरुष सदा भोग सिद्धि के लिये मार्ग में वृक्षादि लगाकर लोगों के लिये छाया की व्यवस्था करे | जलाशय (कुआ, बावली और पोखरे) बनवाये | वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिये पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे | धनी को यह सब कार्य सदा ही करते रहना चाहिये | समयानुसार पुण्यकर्मो के परिपाक से अंत:करण शुद्ध होनेपर ज्ञान की सिद्धि हो जाती हैं | द्विजो ! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता हैं, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता हैं |

                      – ॐ नम:शिवाय –

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