*मनुष्य की एक जन्मजात भावना है। मनुष्य स्वयं को अपने से जुडी प्रत्येक चीज को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है या श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करता है।* *पर ये सत्य है की वो अपने आप को किसी न किसी रूप में दूसरों की तुलना में बेहतर मानता है । मनुष्य की इसी भावना को अहं , अहंकार कहते है ।*
*अहंकार एक ऐसी भावना है जो किसी न किसी रूप में हम सब में पायी जाती है।अहंकार एक ऐसा मायावी अवगुण है की मनुष्य को पता भी नहीं चलता कब इसने उस पर अपना अधिकार जमा लिया है क्योंकि अहंकार के अनगनित बीज है जैसे किसी को रूप का , किसी को पैसे का ,किसी को जात या कुल का ,किसी को ज्ञानका ,किसी को बल का ,किसी को सत्ता का अहंकार होता है इसी तरह अहंकार की अनगनित रूप है कब किस रूप में हम पर आधिपत्य जमा लेता है और हमको पता भी नहीं चलता।यहाँ तक किसी सद्गुणी आदमी को अपने सद्गुणों का अहंकार हो सकता है जैसे की मेरे जसा दानी कोई नहीं , मेरे जैसी सेवा भावना कहीं नहीं ।यहाँ तक एक धार्मिक आदमी को अपने धर्म पर अहंकार हो सकता है ।*
*अहंकार एक ऐसी भावना है जो किसी न किसी रूप में हम सब में पायी जाती है।अहंकार एक ऐसा मायावी अवगुण है की मनुष्य को पता भी नहीं चलता कब इसने उस पर अपना अधिकार जमा लिया है क्योंकि अहंकार के अनगनित बीज है जैसे किसी को रूप का , किसी को पैसे का ,किसी को जात या कुल का ,किसी को ज्ञानका ,किसी को बल का ,किसी को सत्ता का अहंकार होता है इसी तरह अहंकार की अनगनित रूप है कब किस रूप में हम पर आधिपत्य जमा लेता है और हमको पता भी नहीं चलता।यहाँ तक किसी सद्गुणी आदमी को अपने सद्गुणों का अहंकार हो सकता है जैसे की मेरे जसा दानी कोई नहीं , मेरे जैसी सेवा भावना कहीं नहीं ।यहाँ तक एक धार्मिक आदमी को अपने धर्म पर अहंकार हो सकता है ।*
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