Tuesday, August 21, 2018

प्रेम का रस तो तभी है जो उसे प्राप्त करने के लिए भागना पड़े किशोरीजी एक महात्मा के हाथ से प्रेमवश वस्त्र ले भागीं



प्रेम का रस तो तभी है जो उसे प्राप्त करने के लिए भागना पड़े
किशोरीजी एक महात्मा के हाथ से प्रेमवश वस्त्र ले भागीं

बरसाने में एक महात्माजी किशोरीजी राधारानी को बहुत भजते थे. वह बरसाने में रोज राधा रानी के भवन में दर्शन करने आते. बड़ी निष्ठा ,बड़ी श्रद्धा थी किशोरीजी के चरणों में.

एक बार उन्होंने देखा कि एक भक्त राधारानी को पोशाक अर्पित कर रहा था. उस महात्माजी को भाव आया कि मैंने आज तक तो किशोरीजी को कुछ भी भेंट ही नहीं चढ़ाया. बस रोज ऐसे ही खाली हाथ चला आता हूं.

भक्तजन तो आते हैं तो उनमें से कोई फूल चढ़ाता है, कोई सुंगर भोग लगाता है, कोई पोशाक पहनाता है पर मैंने आज तक कुछ भी भेंट न दिया, अरे कैसा भगत हूँ मैं. महात्माजी ने निश्चय किया कि मैं अपने हाथों से सुंदर वस्त्र बनाकर राधारानी को भेंट करूंगा.

उसी दिन से महात्माजी तैयारी में लग गए. साधु को सिलाई-बुनाई कैसे आती. मन में भाव था तो राधारानी खुद ही सिखा जातीं. जैसे तैसे महीने भर में बहुत प्यारी पोशाक बन गई.

पोशाक बन तो गई लेकिन महात्माजी को क्या अंदाजा. जो वस्त्र सिले वह किसी छोटी बालिका के ही आकार का था. वह अपनी मेहनत से बनाई पोशाक लेकर किशोरीजी के चरणों में अर्पित करने पहुंचे.

बरसाने में मंदिर की सीढियां महात्माजी ने अभी चढ़नी शुरू की ही थीं कि एक छोटी सी बालिका उनके पास आई और बोली- बाबा आपके हाथ में क्या है और इसे कहां लिए जा रहे हो?

महात्मा बोले- लाली ये मैंने किशोरीजी के लिए पोशाक बनाई. उनको पहनने के लिए भेंट करने जा रहा हूं.

लड़की बोली- बाबा राधा रानी के पास तो बहुत वस्त्र हैं आप ये मुझे दे दो. मेरे पास नहीं हैं ऐसे सुंदर वस्त्र.

महात्मा बोले- बेटी ये तो मैंने किशोरीजी के लिए ही अपने हाथों से बनाया है. तुम्हें मैं दूसरी बाजार से दिलवा दूंगा. अभी राधा रानी को भेंट करके आता हूं. तू यहीं खड़ी रह. फिर बाजार से दिला देता हूं तुझे.

पर वह बालिका हठ में आ गई. उसी पोशाक को मांगने लगी. महात्माजी उसे मनाते रहे. अचानक वह बच्ची महात्माजी के हाथ से छीनकर वह पोशाक लेकर भाग गई. महात्माजी दुखी हो गए.

वहीं सीढियो पर बैठकर रोने लगे. दूसरे भक्त वहां से निकले और पूछा कि आप क्यों रो रहे हो? तो उन्होंने सारी बात बताई.

भक्तों ने भी दुख जताया फिर बोले- अब तो सामान हाथ से निकल गया. कब तक रोते रहोगे. चलो दर्शन करके किशोरीजी से हाल कह दो.

सबके साथ वह दुखी मन से दर्शन को चले. फिर ख्याल आया कि शायद किशोरीजी की की इच्छा नहीं थी मेरे वस्त्र लेने की. शायद मेरे हाथों से अच्छी पोशाक न बनी हो इसलिए वह पहनना ही नहीं चाहती थीं तभी यह सब लीला कराई.

यही सब सोचते वह मंदिर में पहुंच गए. पट खुलने का समय हुआ. जैसे ही पट खुले तो वो महात्माजी ने देखा कि जो पोशाक वह बालिका लेकर भागी थी वही पोशाक पहने राधा रानी विराजमान थीं.

यह देखते ही महात्माजी की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने किशोरीजी को उलाहना दिया कि मैं तो आपको ही देने लाया था फिर आपसे इतना भी सब्र नहीं हुआ कि छीनकर भागीं. मैं तो जाने क्या-क्या सोचता रहा.

किशोरीजी ने बोली- बाबा ये केवल वस्त्र नहीं नहीं है. यह तो आपका श्रद्धा प्रेम है. प्रेम को पाने के लिए तो दौड़ना ही पड़ता है, भागना ही पड़ता है. मैंने तो बस वह रीत निभाई है.

यह एक भक्ति कथा है. भक्ति कथाएं किसी शास्त्र-पुराण से हों यह आवश्यक नहीं. मन में जैसा भाव होता है वैसी कथाएं भक्तजन रचते हैं. हमें तो इन कथाओं में समाए भक्तिरस में गोते लगाना चाहिए.


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