Thursday, August 23, 2018

श्री शिवपुराण - महात्म्य ( पोस्ट 21) विधेश्वर संहिता अध्याय 17

श्री शिवपुराण - महात्म्य  ( पोस्ट 21)

                            विधेश्वर संहिता

                            अध्याय 17

विषय। - षडलिंगस्वरुप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मंत्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्म के लोकों से लेकर कारणरूद्र के लोकोंतक का विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोक के अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तों के सत्कार की महत्ता

ऋषि बोले – प्रभो ! महामुने ! आप हमारे लिये क्रमशः षडलिंगस्वरुप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताइये |

सूतजीने कहा – महर्षियों ! आपलोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बड़ा सुंदर प्रश्न उपस्थित किया है | किन्तु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं | तथापि भगवान शिवकी कृपासे ही मैं इस विषयका वर्णन करूँगा | वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगों की रक्षा का भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करे | ‘प्र ‘ नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसाररूपी महासागरका | प्रणव इससे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है | इसलिये इस ओंकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं | ॐकार अपने जप करनेवाले साधकों से कहता हैं – ‘प्र-प्रपंच, न- नहीं हैं, वल – तुमलोगों के लिये |’ अत: इस भावको लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ओम’ को ‘प्रणव’ नामसे जानते हैं | इसका दूसरा भाव यों हैं – ‘प्र – प्रकषेण, न – नयेत, व – पुष्मान मोक्षम इति वा प्रणव: | अर्थात यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्षतक पहुँचा देगा |’ इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि ‘प्रणव’ कहते हैं |अपना जप करनेवाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करनेवाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है ; इसलिये भी इसका नाम प्रणव हैं | उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात नूतन कहते हैं | वे परमात्मा प्रकृष्टरूप से नव अर्थात शुद्धस्वरुप हैं, इसलिये ‘प्रणव’ कहलाते हैं | प्रणव साभकको नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता हैं ; इसलिये भी विद्वान पुरुष उसे प्रणव के नामसे जानते हैं | अथवा प्रकृष्टरूप से नव-दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता हैं, इसलिये वह प्रणव हैं |

प्रणव के दो भेद बताये गये हैं – स्थूल और सूक्ष्म | एक अक्षररूप जो ‘ॐ’ है , उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और ‘नम: शिवाय’ इस पाँच अक्षरवाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये | जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूप से व्यक्त हैं, वह स्थूल हैं | जीवमुक्त पुरुष के लिये सूक्ष्म प्रणव के जपका विधान हैं | वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है | (यद्यपि जीवनमुक्त के क्योंकि वह सिद्धरुप हैं, तथापि दूसरों की दृष्टिमें जबतक उसका शरीर रहता हैं, तबतक उसके द्वारा प्रणव-जप की सहज साधना स्वत: होती रहती हैं | ) वह अपनी देहका विलय होनेतक सूक्ष्म प्रणव मन्त्रका जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्वका अनुसन्धान करता रहता हैं | जब शरीर नष्ट हो जाता हैं, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिवको प्राप्त कर लेता हैं – यह सुनिश्चित बात हैं | जो अर्थका अनुसन्धान न करके केवल मन्त्रका जप करता हैं, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है | जिसने छत्तीस करोड़ मंत्रका जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता हैं | सूक्ष्म प्रणव के भी ह्रस्व और दीर्घ के भेदसे दो रूप जानने चाहिये | अकार, उकार, मकार, बिंदु, नाद, शब्द, काल और कला – इनसे युक्त जो प्रणव हैं, उसे ‘दीर्घप्रणव’ कहते हैं| | वह योगियों के ही ह्रदयमें स्थित होता हैं | मकारपर्यन्त जो ॐ हैं, वह अ व म – इन तीन तत्त्वों से युक्त है | इसीको ‘ह्रस्वप्रणव’ कहते हैं | ‘अ’ शिव हैं, ‘उ’ शक्ति हैं और मकार इन दोनों की एकता हैं | वह त्रितत्त्वरूप हैं, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणवका जप करना चाहिये | जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणवका जप अत्यंत आवश्यक हैं |

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच भुत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय – य सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामनाके विषय हैं | इनकी आशा मनमें लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्तिमार्गी) कहलाते हैं तथा जो निष्कामभाव से शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त (अथवा निवृत्तिमार्गी) कहे गये हैं | प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणवका ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषोंको दीर्घ प्रणवका | व्याहतियों तथा अन्य मन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कलासे युक्त प्रणवका उच्चारण करना चाहिये | वेदके आदिमें और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये |

प्रणव का नौ करोड़ जप करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता हैं | फिर नौ करोड़ का जप करनेसे वह पृथ्वीतत्वपर विजय पा लेता हैं | तत्पश्चात पुन: नौ करोड़ का जप करके वह जल-तत्त्व को जीत लेता हैं | पुनः नौ करोड़ जपसे अभीतत्त्वपर विजय पाता है | तदनंतर फिर नौ करोड़का जप करके वह वायु-तत्त्वपर विजयी होता है | फिर नौ करोड़ के जपसे आकाश को अपने अधिकार में कर लेता हैं | इसीप्रकार नौ-नौ करोड़ का जप करके वह क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्दपर विजय पाता हैं, इसके बाद फिर नौ करोड़का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है | इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणव का जप करके उत्कृष्ट बोधको प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग का लाभ करता हैं | शुद्ध योग से युक्त होनेपर वह जीवनमुक्त हो जाता हैं, इसमें संशय नहीं है | सदा प्रणवका जप और प्रणवरूपी शिवका ध्यान करते – करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात शिव ही हैं, इसमें संशय नहीं है | पहले अपने शरीरमें प्रणव के ऋषि, छंद और देवता आदिका न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये | अकारादि मातृका वर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है | मन्त्रों के दशविद्य संस्कार, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन आदि के साथ सम्पूर्ण न्यासफल उसे प्राप्त हो जाता हैं | प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्तिसे मिश्रित भाववाले पुरुषों के लिये स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधक होता हैं |

क्रिया, तप और जपके योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं – जो क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं | जो धन आदि वैभवों से पूजा-सामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगोंसे नमस्कारादि किया करते हुए इष्टदेव की पूजामें लगा रहता हैं, वह ‘क्रियायोगी’ कहलाता हैं | पूजामें संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता, बाह्य इन्दिर्यों को जीतकर वशमें किये रहता और मनको भी वशमें करके परद्रोह आदिसे दूर रहता हैं, वह ‘तपोयोगी’ कहलाता हैं | इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्धभावसे रहता तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शांतचित्त से निरंतर जप किया करता हैं, उसे महात्मा पुरुष ‘जपयोगी’ मानते हैं | जो मनुष्य सोलह प्रकार के उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदि के क्रम से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता हैं |

द्विजो ! अब मैं जपयोग का वर्णन करता हूँ | तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो | तपस्या करनेवाले के लिये जपका उपदेश किया गया हैं; क्योंकि वह जप करते-करते अपने-आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता हैं | ब्राह्मणों ! पहले ‘नम:’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्ति में ‘शिव’ शब्द हो तो पंचतत्त्वात्मक ‘नम:शिवाय’ मन्त्र होता हैं | इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं | यह स्थूल प्रणवरूप हैं | इस पंचाक्षर के जपसे ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है | पंचाक्षरमन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये | द्विजो ! गुरुके मुखसे पंचाक्षरमन्त्र का उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीने के पूर्वपक्ष (शुक्ल) में (प्रतिपदासे) आरम्भ करके कृष्णपक्ष की चतुर्दशीतक निरंतर जप करता रहे | माघ और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं | यह समय सब समयों से उत्तमोत्तम माना गया हैं | साधक को चाहिये कि प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्दिर्यों को वशमें रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिताकी नित्य सेवा करे | इस नियमसे रहकर जप करनेवाला पुरुष एक सहस्त्र जपसे ही शुद्ध हो जाता हैं, अन्यथा वह ऋणी होता हैं | भगवान शिवका निरंतर चिन्तन करते हुए पंचाक्षर मन्त्रका पाँच लाख जप करे | जपकाल में इसप्रकार ध्यान करे | कल्याणदाता भगवान् शिव कमल के आसनपर विराजमान हैं | उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चंद्रमा की कला से सुशोभित हैं | उनकी बायीं जांघपर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी है | वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं | महादेवजी अपने चार हाथोंमें मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभय की मुद्राएँ धारण किये हुए हैं | इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिवका बारंबार स्मरण करते हुए ह्दय अथवा सूर्यमंडल में पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्याका जप करे | उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे | (और दुष्कर्मसे बचा रहे ) | जपकी समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को प्रात:काल नित्यकर्म करके शुद्ध एवं सुंदर स्थान में शौच-संतोषादि नियमों से युक्त हो शुद्ध ह्रदय से पंचाक्षर मन्त्र का बारह सहस्त्र जप करे | तत्पश्चात पाँच सपत्निक ब्राह्मणों का, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हो, वरण करे | इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यप्रवर का भी वरण करे और उसे साम्ब सदाशिवका स्वरूप समझे | ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात – इन पाँचों के प्रतिकस्वरुप पाँच ही श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण करने के पश्चात पूजन-सामग्री को एकत्र करके भगवान् शिवका पूजन आरम्भ करे | विधिपूर्वक शिव की पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे |

अपने गृह्यसूत्र के अनुसार सुखान्त कर्म करके अर्थात परिसमुहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृद-उद्धरण और अभ्युक्षण – इन पंच भू-संस्कारों के पश्चात वेदीपर स्वाभिमुख अग्नि को स्थापित करके कुश कंडिका के अनन्तर प्रज्वलित अग्नि में आज्यभागान्त आहुति देकर प्रस्तुत होमका कार्य आरम्भ करे | कपिला गायके घी से ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणों से एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये | होमकर्म समाप्त होनेपर गुरु को दक्षिणा के रूप में एक गाय और बैल देने चाहिये | ईशान आदिके प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणों का वरण किया गया हो, उनको ईशान आदिका स्वरुप ही समझे तथा आचार्य को साम्ब सदा-शिव का स्वरुप माने | इसी भावना के साथ उन सबके चरण मस्तक को सींधे | ऐसा करनेसे वह साथक अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान करने का फल प्राप्त कर लेता है | उन ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक दशांश अन्न देना चाहिये | गुरुपत्नी से पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे | ईशानादि क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्नसे पूजन करके अपने वैभव विस्तार के अनुसार रुदाक्ष, वस्त्र, बड़ा और पुआ आदि अर्पित करे | तदनंतर बली देकर भरपुर भोजन कराये | इसके बाद देवेश्वर शिवसे प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे | इसप्रकार पुरुश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता हैं | फिर पाँच लाख जप करनेसे समस्त पापों का नाश हो जाता हैं | तदनंतर पुन: पाँच लाख जप करनेपर अतलसे लेकर सत्यलोकतक चौदहों भुवनोंपर क्रमशः अधिकार प्राप्त हो जाता हैं |

पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतोंद्वारा पाताल से लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजी के चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं | सत्यलोक से ऊपर क्षमालोक तक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णु के लोक हैं | क्षमालोक से ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अठ्ठाइस भुवन स्थित हैं | शुचिलोक के अंतर्गत कैलास में प्राणियों का संहार करनेवाले रुद्रदेव विराजमान हैं | शुचिलोक से ऊपर अहिन्सालोकपर्यन्त छप्पन भुवनों की स्थिति हैं | अहिन्सालोक का आश्रय लेकर जो ज्ञान-कैलास नामक नगर शोभा पाटा हैं, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं | अहिंसालोक के अंत में कालचक्र की स्थिति हैं | यहाँ तक महेश्वर के विराटस्वरुप का वर्णन किया गया | वहीतक लोकों का तिरोधान अथवा लय होता हैं | उससे नीचे कर्मोंका भोग हैं और उससे ऊपर ज्ञान का भोग | उसके नीचे कर्ममाया हैं और उसके ऊपर ज्ञानमाया |

कर्ममाया और ज्ञानमाया का तात्पर्य –

‘मा’ का अर्थ हैं लक्ष्मी | उससे कर्मभोग यात – प्राप्त होता हैं | इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती हैं | इसीतरह मा अर्थात लक्ष्मी से ज्ञानभोग बात अर्थात प्राप्त होता हैं | इसिलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया हैं | उपर्युक्त सीमा से नीचे ही नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग | उससे निचे ही तिरोधान अथवा ली हैं, ऊपर नहीं | वहाँ से नीचे ही कर्ममय पाशोद्वारा बंधन होता हैं | ऊपर बंधनका सदा अभाव हैं | उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं | उससे ऊपर के लोकों में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया हैं | बिंदुपूजा में तत्पर रहनेवाले उपासक वहां से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं | उसके ऊपर तो निष्कामभाव से शिवलिंग की पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं | जो एकमात्र शिव की उपासना में तत्पर हैं, वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं | वहाँ से नीचे जीवकोटि हैं और ऊपर ईश्वरकोटि | नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष | नीचे कर्मलोक हैं और ऊपर ज्ञानलोक | ऊपर मद और अहंकार का नाश करनेवाली नम्रता हैं, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं हैं | उसका निवारण किये बिना वहाँ किसीका प्रवेश सम्भव नहीं हैं | इसप्रकार तिरोधान का निवारण करनेसे वहाँ ज्ञानशब्द का अर्थ ही प्रकाशित होता हैं | आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं | जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही उससे ऊपर को जाते हैं |

जो सत्य-अहिंसा आदि धर्मों से मुक्त हो भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे कालचक्र को पार कर जाते हैं | काल चक्रेश्वर की सीमातक जो विराट महेश्वरलोक बताया गया हैं, उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति हैं | वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान रूप है | उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया – ये चार पाद हैं | वह साक्षात शिवलोक के द्वारपर खड़ा हैं | क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं , वह वेद्ध्यनिरुपी शब्द से विभूषित हैं | आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन हैं | क्रिया आदि धर्मरुपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में स्थित हैं – ऐसा जानना चाहिये | उस क्रियारूप वृषभाकार धर्मपर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं | ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु हैं,उसीको दिन कहते हैं | जहाँ धर्मरुपी वृषभ की स्थिति हैं, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि | वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं हैं | वहाँ फिर से कारणस्वरुप ब्रह्मा के कारण सत्यलोकपर्यत चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गंध आदिसे परे है | उनकी सनातन स्थिति हैं | सूक्ष्म गंध ही उनका स्वरुप हैं | उनसे ऊपर फिर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं | उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रूद्र के अठ्ठाइस लोकों की स्थिति मानी गयी हैं | फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं | तदनंतर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक हैं और वहीँ पाँच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास हैं, जहाँ पाँच मंडलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्ति से संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित हैं | उसे परमात्मा शिवका शिवालय कहा गया हैं | वही पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं | वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह – इन पाँचों कृत्योंमें प्रवीण हैं | उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरुप हैं | वे सदा ध्यानरुपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं | वे स्वात्माराम हैं और समाधिरुपी आसनपर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं | कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमश: साधनपथ में आगे बढनेपर उनका दर्शन साध्य होता हैं | नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मोद्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिवके समाराधन-कर्म में मन लगता हैं | क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे | जिन्होंने शिवतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया हैं अथवा जिनपर शिवकी कृपादृष्टि पढ़ चुकी हैं, वे सब मुक्त ही हैं – इसमें संशय नहीं हैं | आत्मस्वरूप से जो स्थिति हैं, वही मुक्ति हैं | एकमात्र अपने आत्मा में रमण या आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का स्वरुप हैं | जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरुपी श्रमों में भलीभाँति स्थित हैं, वह शिवका साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वरूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता हैं | जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से अशुद्धि को दूर कर देते हैं, उसीप्रकार कृपा करने में कुशल भगवान् शिव अपने भक्त के अज्ञान को मिटा देते हैं | अज्ञान की निवृत्ति हो जानेपर शिवज्ञान स्वत: प्रकट हो जाता है | शिवज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्त्व प्राप्त होता हैं और आत्मारामत्त्व की सम्यक सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता हैं |

इसतरह यहाँ जो कुछ बताया गया हैं | वह पहले मूझे गुरुपरंपरा से प्राप्त हुआ था | तत्पश्चात मैंने पुन: नन्दीश्वर के मुख से इस विषय को सूना था | नंदिस्थान से परे जो सर्वश्रेष्ठ शिव-वैभव हैं, उसका अनुभव केवल भगवन शिवको ही है | साक्षात शिवलोक के उस वैभव का ज्ञान सबको शिवकी कृपासे ही हो सकता हैं, अन्यथा नहीं – ऐसा आस्तिक पुरुषों का कथन हैं |

साधक को चाहिये कि वह पाँच लाख जप करने के पश्चात भगवान् शिवकी प्रसन्नता के लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तों का पूजन करे | भक्त की पूजा से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं | शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं हैं | वह साक्षात शिवस्वरुप ही हैं | शिवस्वरुप मन्त्र को धारण करके वह शिव ही हो गया रहता हैं | शिवभक्त का शरीर शिवरूप ही है | अत: उसकी सेवामें तत्पर रहना चाहिये | जो शिव के भक्त हैं, वे लोक और वेदकी सारी क्रियाओं को जानते हैं | जो क्रमशः जितना-नितना शिवमंत्र का जप कर लेता हैं, उसके शरीर को उतना-ही-उतना शिव का सामीप्य प्राप्त होता जाता हैं, इसमें संशय नहीं हैं |शिवभक्त स्त्रीका रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप हैं | वह जितना मन्त्र जपती हैं, उसे उतना ही देवीका सानिध्य प्राप्त होता जाता हैं | साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति का पूजन करे | शक्ति, वेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिटटी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करे | शिवलिंग को शिव मानकर, अपने को शक्तिमय समझकर, शक्तिलिंग को देवी मानकर और अपने को शिवरूप समझकर, शिवलिंग को नादरूप तथा शक्ति को बिंदुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंग के प्रति उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते हुए जो शिव और शक्ति का पूजन करता हैं, वह मूलरूप की भावना करने के कारण शिवरूप ही है | शिवभक्त शिव-मन्त्ररूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप हैं | जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता हैं, उसे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है | जो शिवलिंगोंपासक शिवभक्त की सेवा आदि करके उसे आनंद प्रदान करता हैं, उस विद्वानपर भगवान शिव बड़े प्रसन्न होते हैं | पाँच, दस या सौ सपत्निक शिवभक्तों को बुलाकर भोजन आदिके द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे | धनमें, देहमें और मन्त्र में शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपट भाव से उसकी पूजा करे | ऐसा करनेवाला पुरुष इस भूतलपर फिर जन्म नहीं लेता |

                            – ॐ नम:शिवाय –

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