श्री शिवपुराण - महात्म्य ( पोस्ट 22 )
विधेश्वर संहिता
अध्याय 18
विषय - बंधन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिवपूजन का विधान, भस्म के स्वरुप का निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्द की व्युत्पत्ति तथा शिव के भस्मधारण का रहस्य
ऋषि बोले – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूतजी ! बंधन और मोक्ष का स्वरूप क्या हैं ? यह हमें बताइये |
सूतजी ने कहा – महर्षियों ! मैं बंधन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा | तुमलोग आदरपूर्वक सुनो | जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ हैं , वह जीव बद्ध कहलाता हैं और जो उन आठों बन्धनों से छुटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं | प्रकृति आदिको वश में कर लेना मोक्ष कहलाता हैं |बंधन आगन्तुक हैं और मोक्ष स्वत:सिद्ध हैं | बद्ध जीव जब बंधन से मुक्त हो जाता हैं तब उसे मुक्तजीव कहते हैं | प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ – इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याध्यष्ट्क मानते हैं | प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है | देहसे कर्म उत्पन्न होता हैं और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती हैं | इसप्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं | शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये | स्थूल शरीर (जाग्रत अवस्था में ) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में ) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारण शरीर (सुषुप्तावस्था में ) आत्मानंद की अनुभूति करानेवाला कहा गया हैं | जीवको उसके प्रारब्ध कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं | वह अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख का उपभोग करता हैं | अत: कर्मपाश से बन्धा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होनेवाले शुभाशुभ कर्मोंद्वारा सदा चक्र की भांति बारंबार घुमाया जाता हैं | इस चक्रवत भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये | प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र हैं और जो प्रकृतिसे परे हैं , वह परमात्मा शिव हैं | भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं | जैसे बकायन नामक वृक्ष का छाला जल को पीता और उगलता है, उसीप्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उसपर शासन करते हैं | उन्होंने सबको वश में कर लिया हैं, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं | शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा नि:स्पृह हैं | सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना – महेश्वर के इन छ: प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता हैं | अत: भगवान् शिवके अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्व वश में होते हैं | भगवान् शिवका कृपा-प्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये |
यदि कहें – शिव तो परिपूर्ण हैं, नि:स्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् शिवके उद्देश्य से – उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त करानेवाला होता हैं | शिव-लिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये | वह पूजन शरीरसे, मनसे, वाणीसे और धनसे भी किया जा सकता हैं | उस पूजासे महेश्वर शिव, जो प्रकृतिसे परे हैं, पूजकपर विशेष कृपा करते हैं और उनका वह कृपा-प्रसाद सत्य होता हैं | शिवकी कृपासे कर्म आदि सभी बंधन अपने वशमें हो जाते हैं | कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वशमें हो जाता हैं, तब वह जीव मुक्त कहलाता हैं और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता हैं |परमेश्वर शिवकी कृपासे जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिवके लोक में निवास का सौभाग्य प्राप्त होता हैं | इसीको सालोक्य-मुक्ति कहते हैं | जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिवका सामीप्य प्राप्त कर लेता है | यह सामीप्य मुक्ति हैं, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिवके समान हो जाते हैं | भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वशमें हो जाती है | बुद्धि प्रकृतिका कार्य है | उसका वश में होना सार्ष्टिमुक्ति कहा गया हैं | पुन: भगवानका महान अनुग्रह प्राप्त होनेपर प्रकृति वश में हो जायगी | उससमय भगवान् शिवका मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा | सर्वज्ञता और तृप्ति आदि जो शिव के ऐश्वर्य है, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपने आत्मा में ही विराजमान होता हैं | वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान पुरुष इसीको सायुज्यमुक्ति कहते हैं | इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करनेसे क्रमश: मुक्ति स्वत: प्राप्त हो जाती है | इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हींका पूजन करना चाहिये | शिवक्रिया, शिवतप, शिवमंत्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये | प्रतिदिन प्रात:कालसे रातको सोते समयतक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये | सद्योजातादि मंत्रो तथा नाना प्रकार के पुण्यों से जो शिव की पूजा करता हैं, वह शिवको ही प्राप्त होगा |
ऋषि बोले – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले सूतजी ! लिंग आदि में शिवजी की पूजा का विधान हैं, यह हमे बताइये |
सूतजीने कहा – द्विजो ! मैं लिंगों के क्रम का यथावत वर्णन कर रहा हूँ तुम सब लोग सुनो | वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला प्रथम लिंग हैं | उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझो | सूक्ष्म लिंग निष्कल होता हैं और स्थूल लिंग सकल | पंचाक्षर-मन्त्र को ही स्थूल लिंग कहते हैं | उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता हैं | वे दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देनेवाले हैं | पौरुष-लिंग और प्रकृति-लिंग के रूपमें बहुत से लिंग हैं | उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं | दूसरा कोई नहीं जानता | पृथ्वी के विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं तुम्हें बता रहा हूँ | उनमें स्वयम्भूलिंग प्रथम हैं | दूसरा बिंदुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित-लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवा गुरुलिंग हैं | देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को भेदकर नादलिंग के रूपमें व्यक्त हो जाते हैं | वे स्वत: व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयंभू नाम धारण करते हैं | ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग की रुपमे जानते हैं | उस स्वयम्भूलिंग की पूजासे उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता हैं | सोने-चाँदी आदिके पत्रपर, भूमिपर अथवा वेदिपर अपने हाथसे लिखित जो शुद्ध प्रणव मंत्ररूप लिंग हैं, उसमें तथा मन्त्रलिंगका आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे | ऐसा बिंदुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता हैं | इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही हैं, ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता हैं | जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होनेका विश्वास हो, उसके लिये वहीँ प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं | अपने हाथ से लिखे हुए यंत्र में अथवा अकृतिम स्थावर आदि में भगवान् शिवका आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करे | ऐसा करनेसे साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता हैं और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी होता हैं | देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मंडल में शुद्ध भावनाद्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की हैं, उसे पौरुष लिंग कहते हैं |तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता हैं | उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है | महँ ब्राह्मण और महाधनी राजा किसी कारीगर से शिवलिंग का निर्माण कराकर जो मंत्रपूर्वक उसकी स्थापना करते हैं, उनके द्वारा स्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता हैं | किन्तु वह प्राकृत लिंग है न| इसलिये प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को ही देनेवाला होता हैं | जो शक्तिशाली और नित्य होता हैं, उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुर्बल और अनित्य होता हैं, वह प्राकृत कहलाता हैं |
लिंग, नाभि, जिव्हा, नासाप्रभाग और शिखा के क्रम से कटी, ह्रदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी हैं, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते है | पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया हैं और भूतल को विद्वान पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं | वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदिको प्राकृतलिंग | साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग | अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य हैं, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये | सुंदर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं | चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता हैं | रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं | शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान राज्य की प्राप्ति करानेवाला हैं | सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करनेवाला हैं तथा सुंदर शिवलिंग शुदों को महाशुद्धि देनेवाला हैं | स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं | अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं हैं | स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिव लिंग की पूजा का विधान हैं | प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विग्रवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है | परन्तु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया हैं | उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षियों ! बचपनमें, जवानी में और बुढापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है न| गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली हैं |
प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे | इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के चावल से बने हुए खीर आदि पक्वान्नोंद्वारा नैवेद्य अर्पण करे | पूजा के अंत में शिवलिंग को सम्पुष्ट में पधराकर घर के भीतर पृथक रख दे | जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथपर ही शिवलिंग-पूजा का विधान हैं | उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये | निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता हैं | वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें | पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तकपर धारण करे |
विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी हैं – लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित | लोकाग्निजनित या लौकिक भस्म की द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे | मिटटी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की भस्म से शुद्धि होती है | कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी भस्म से ही शुद्धि मानी गयी हैं | वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये | मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूपधारण करता हैं | उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता हैं | अघोर मुर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र हैं, उसे पढकर बेल की लकड़ी को जलाये | उस मन्त्र से अभिमंत्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है | उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म हैं, वह शिवाग्निजनित हैं | कपिला गाय के गोबर अथवा गायमात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, बड, अमलतास और बेर – इनकी लकड़ियों की शिवाग्नि से जलाये | वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये | फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे | उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करे | ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता हैं | पूर्वकाल में भगवान् शिवने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था | जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत करको ग्रहण करता हैं, जैसे मनुष्य सत्य आदिको जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थोंको भारी मात्रा में ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर व्स्तुसे स्वदेह का पोषण करता हैं, उसीप्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिवने भी अपने में आधेपरूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया हैं | प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया हैं | राख, भभूत पोतने के बहाने जगत के सार को ही ग्रहण किया हैं | अपने शरीर में अपने लिए रत्नस्वरुप भस्म को इसप्रकार स्थापित किया हैं – आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारततत्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है | इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं | महेश्वर ने अपने ललाट में तिलकरूप से जो त्रिपुंड धारण किया हैं, वह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र का सारतत्त्व हैं | वे इन सब वस्तुओं को जगत के अभ्युदय का हेतु मानते हैं | इन भगवान् शिवने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वशमें किया हैं |अत: इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं हैं | जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग सिंह कहलाता हैं और उसकी हिंसा करनेवाला कहलाता हैं और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं हैं, अतएव उसे सिंह कहा गया हैं |
शकार का अर्थ हैं नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ हैं पुरुष और वकार का अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति | इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता हैं | अत: इस रुपमे भगवान् शिवको अपना आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अत: पहले अपने अंगों में भस्म मले | फिर ललाट में उत्तम त्रिपुंड धारण करे | पूजाकालमें सजल भस्म का उपयोग होता हैं और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का | गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं – दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं | गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनो गुणों को पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं | गुरु की पूजा परमात्मा शिव की ही पूजा है | गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता हैं | गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही हैं , जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता हैं | गुरु से भी विशेष ज्ञानवान पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिए | अज्ञानरूपी बंधन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ हैं | अत: जो विशेष ज्ञानवान है, वही जीव को उस बंधन से छुड़ा सकता हैं |
जन्म और मरणरूप द्वंद्व को भगवान् शिव की मायाने ही अर्पित किया हैं | जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता हैं, वह फिर शरीर के बंधन में नहीं पड़ता | जबतक शरीर रहता हैं, तबतक जो क्रिया के ही अधीन हैं, वह जीव बद्ध कहलाता हैं | स्थूल, सूक्ष्म और कारण – तीनों शरीरों को वश में कर लेनेपर जीवका मोक्ष हो जाता हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन हैं | मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं | वे अपनी माया के दिये हुए द्वंद्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं | अत: शिवके द्वारा कल्पित हुआ द्वंद्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये | जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यानमें से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे | ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान शिव के सामीप्य का लाभ – ये क्रमश: क्रिया आदि के फल है | निष्काम कर्म करनेसे अज्ञान का निवारण हो जानेके कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता हैं | शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करे | न्यायोपार्जित उत्तम धनसे निर्वाह करते हुए विद्वान पुरुष शिव के स्थान में निवास करे | जीवहिंसा आदिसे रहित और अत्यंत क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जपसे अभिमंत्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया हैं अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता हैं | शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्ति को बढाता हैं | शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं | जिस किसी भी उपायसे जहाँ कहीं भी भूतलपर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौनभाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसीपर प्रकट न करे |भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य प्रकाशित करे | शिवमंत्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं |
– ॐ नम: शिवाय –
विधेश्वर संहिता
अध्याय 18
विषय - बंधन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिवपूजन का विधान, भस्म के स्वरुप का निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्द की व्युत्पत्ति तथा शिव के भस्मधारण का रहस्य
ऋषि बोले – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूतजी ! बंधन और मोक्ष का स्वरूप क्या हैं ? यह हमें बताइये |
सूतजी ने कहा – महर्षियों ! मैं बंधन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा | तुमलोग आदरपूर्वक सुनो | जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ हैं , वह जीव बद्ध कहलाता हैं और जो उन आठों बन्धनों से छुटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं | प्रकृति आदिको वश में कर लेना मोक्ष कहलाता हैं |बंधन आगन्तुक हैं और मोक्ष स्वत:सिद्ध हैं | बद्ध जीव जब बंधन से मुक्त हो जाता हैं तब उसे मुक्तजीव कहते हैं | प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ – इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याध्यष्ट्क मानते हैं | प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है | देहसे कर्म उत्पन्न होता हैं और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती हैं | इसप्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं | शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये | स्थूल शरीर (जाग्रत अवस्था में ) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में ) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारण शरीर (सुषुप्तावस्था में ) आत्मानंद की अनुभूति करानेवाला कहा गया हैं | जीवको उसके प्रारब्ध कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं | वह अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख का उपभोग करता हैं | अत: कर्मपाश से बन्धा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होनेवाले शुभाशुभ कर्मोंद्वारा सदा चक्र की भांति बारंबार घुमाया जाता हैं | इस चक्रवत भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये | प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र हैं और जो प्रकृतिसे परे हैं , वह परमात्मा शिव हैं | भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं | जैसे बकायन नामक वृक्ष का छाला जल को पीता और उगलता है, उसीप्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उसपर शासन करते हैं | उन्होंने सबको वश में कर लिया हैं, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं | शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा नि:स्पृह हैं | सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना – महेश्वर के इन छ: प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता हैं | अत: भगवान् शिवके अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्व वश में होते हैं | भगवान् शिवका कृपा-प्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये |
यदि कहें – शिव तो परिपूर्ण हैं, नि:स्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् शिवके उद्देश्य से – उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त करानेवाला होता हैं | शिव-लिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये | वह पूजन शरीरसे, मनसे, वाणीसे और धनसे भी किया जा सकता हैं | उस पूजासे महेश्वर शिव, जो प्रकृतिसे परे हैं, पूजकपर विशेष कृपा करते हैं और उनका वह कृपा-प्रसाद सत्य होता हैं | शिवकी कृपासे कर्म आदि सभी बंधन अपने वशमें हो जाते हैं | कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वशमें हो जाता हैं, तब वह जीव मुक्त कहलाता हैं और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता हैं |परमेश्वर शिवकी कृपासे जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिवके लोक में निवास का सौभाग्य प्राप्त होता हैं | इसीको सालोक्य-मुक्ति कहते हैं | जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिवका सामीप्य प्राप्त कर लेता है | यह सामीप्य मुक्ति हैं, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिवके समान हो जाते हैं | भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वशमें हो जाती है | बुद्धि प्रकृतिका कार्य है | उसका वश में होना सार्ष्टिमुक्ति कहा गया हैं | पुन: भगवानका महान अनुग्रह प्राप्त होनेपर प्रकृति वश में हो जायगी | उससमय भगवान् शिवका मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा | सर्वज्ञता और तृप्ति आदि जो शिव के ऐश्वर्य है, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपने आत्मा में ही विराजमान होता हैं | वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान पुरुष इसीको सायुज्यमुक्ति कहते हैं | इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करनेसे क्रमश: मुक्ति स्वत: प्राप्त हो जाती है | इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हींका पूजन करना चाहिये | शिवक्रिया, शिवतप, शिवमंत्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये | प्रतिदिन प्रात:कालसे रातको सोते समयतक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये | सद्योजातादि मंत्रो तथा नाना प्रकार के पुण्यों से जो शिव की पूजा करता हैं, वह शिवको ही प्राप्त होगा |
ऋषि बोले – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले सूतजी ! लिंग आदि में शिवजी की पूजा का विधान हैं, यह हमे बताइये |
सूतजीने कहा – द्विजो ! मैं लिंगों के क्रम का यथावत वर्णन कर रहा हूँ तुम सब लोग सुनो | वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला प्रथम लिंग हैं | उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझो | सूक्ष्म लिंग निष्कल होता हैं और स्थूल लिंग सकल | पंचाक्षर-मन्त्र को ही स्थूल लिंग कहते हैं | उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता हैं | वे दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देनेवाले हैं | पौरुष-लिंग और प्रकृति-लिंग के रूपमें बहुत से लिंग हैं | उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं | दूसरा कोई नहीं जानता | पृथ्वी के विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं तुम्हें बता रहा हूँ | उनमें स्वयम्भूलिंग प्रथम हैं | दूसरा बिंदुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित-लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवा गुरुलिंग हैं | देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को भेदकर नादलिंग के रूपमें व्यक्त हो जाते हैं | वे स्वत: व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयंभू नाम धारण करते हैं | ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग की रुपमे जानते हैं | उस स्वयम्भूलिंग की पूजासे उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता हैं | सोने-चाँदी आदिके पत्रपर, भूमिपर अथवा वेदिपर अपने हाथसे लिखित जो शुद्ध प्रणव मंत्ररूप लिंग हैं, उसमें तथा मन्त्रलिंगका आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे | ऐसा बिंदुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता हैं | इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही हैं, ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता हैं | जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होनेका विश्वास हो, उसके लिये वहीँ प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं | अपने हाथ से लिखे हुए यंत्र में अथवा अकृतिम स्थावर आदि में भगवान् शिवका आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करे | ऐसा करनेसे साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता हैं और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी होता हैं | देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मंडल में शुद्ध भावनाद्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की हैं, उसे पौरुष लिंग कहते हैं |तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता हैं | उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है | महँ ब्राह्मण और महाधनी राजा किसी कारीगर से शिवलिंग का निर्माण कराकर जो मंत्रपूर्वक उसकी स्थापना करते हैं, उनके द्वारा स्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता हैं | किन्तु वह प्राकृत लिंग है न| इसलिये प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को ही देनेवाला होता हैं | जो शक्तिशाली और नित्य होता हैं, उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुर्बल और अनित्य होता हैं, वह प्राकृत कहलाता हैं |
लिंग, नाभि, जिव्हा, नासाप्रभाग और शिखा के क्रम से कटी, ह्रदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी हैं, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते है | पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया हैं और भूतल को विद्वान पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं | वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदिको प्राकृतलिंग | साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग | अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य हैं, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये | सुंदर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं | चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता हैं | रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं | शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान राज्य की प्राप्ति करानेवाला हैं | सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करनेवाला हैं तथा सुंदर शिवलिंग शुदों को महाशुद्धि देनेवाला हैं | स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं | अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं हैं | स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिव लिंग की पूजा का विधान हैं | प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विग्रवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है | परन्तु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया हैं | उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षियों ! बचपनमें, जवानी में और बुढापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है न| गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली हैं |
प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे | इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के चावल से बने हुए खीर आदि पक्वान्नोंद्वारा नैवेद्य अर्पण करे | पूजा के अंत में शिवलिंग को सम्पुष्ट में पधराकर घर के भीतर पृथक रख दे | जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथपर ही शिवलिंग-पूजा का विधान हैं | उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये | निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता हैं | वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें | पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तकपर धारण करे |
विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी हैं – लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित | लोकाग्निजनित या लौकिक भस्म की द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे | मिटटी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की भस्म से शुद्धि होती है | कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी भस्म से ही शुद्धि मानी गयी हैं | वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये | मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूपधारण करता हैं | उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता हैं | अघोर मुर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र हैं, उसे पढकर बेल की लकड़ी को जलाये | उस मन्त्र से अभिमंत्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है | उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म हैं, वह शिवाग्निजनित हैं | कपिला गाय के गोबर अथवा गायमात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, बड, अमलतास और बेर – इनकी लकड़ियों की शिवाग्नि से जलाये | वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये | फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे | उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करे | ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता हैं | पूर्वकाल में भगवान् शिवने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था | जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत करको ग्रहण करता हैं, जैसे मनुष्य सत्य आदिको जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थोंको भारी मात्रा में ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर व्स्तुसे स्वदेह का पोषण करता हैं, उसीप्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिवने भी अपने में आधेपरूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया हैं | प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया हैं | राख, भभूत पोतने के बहाने जगत के सार को ही ग्रहण किया हैं | अपने शरीर में अपने लिए रत्नस्वरुप भस्म को इसप्रकार स्थापित किया हैं – आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारततत्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है | इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं | महेश्वर ने अपने ललाट में तिलकरूप से जो त्रिपुंड धारण किया हैं, वह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र का सारतत्त्व हैं | वे इन सब वस्तुओं को जगत के अभ्युदय का हेतु मानते हैं | इन भगवान् शिवने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वशमें किया हैं |अत: इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं हैं | जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग सिंह कहलाता हैं और उसकी हिंसा करनेवाला कहलाता हैं और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं हैं, अतएव उसे सिंह कहा गया हैं |
शकार का अर्थ हैं नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ हैं पुरुष और वकार का अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति | इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता हैं | अत: इस रुपमे भगवान् शिवको अपना आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अत: पहले अपने अंगों में भस्म मले | फिर ललाट में उत्तम त्रिपुंड धारण करे | पूजाकालमें सजल भस्म का उपयोग होता हैं और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का | गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं – दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं | गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनो गुणों को पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं | गुरु की पूजा परमात्मा शिव की ही पूजा है | गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता हैं | गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही हैं , जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता हैं | गुरु से भी विशेष ज्ञानवान पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिए | अज्ञानरूपी बंधन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ हैं | अत: जो विशेष ज्ञानवान है, वही जीव को उस बंधन से छुड़ा सकता हैं |
जन्म और मरणरूप द्वंद्व को भगवान् शिव की मायाने ही अर्पित किया हैं | जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता हैं, वह फिर शरीर के बंधन में नहीं पड़ता | जबतक शरीर रहता हैं, तबतक जो क्रिया के ही अधीन हैं, वह जीव बद्ध कहलाता हैं | स्थूल, सूक्ष्म और कारण – तीनों शरीरों को वश में कर लेनेपर जीवका मोक्ष हो जाता हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन हैं | मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं | वे अपनी माया के दिये हुए द्वंद्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं | अत: शिवके द्वारा कल्पित हुआ द्वंद्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये | जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यानमें से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे | ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान शिव के सामीप्य का लाभ – ये क्रमश: क्रिया आदि के फल है | निष्काम कर्म करनेसे अज्ञान का निवारण हो जानेके कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता हैं | शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करे | न्यायोपार्जित उत्तम धनसे निर्वाह करते हुए विद्वान पुरुष शिव के स्थान में निवास करे | जीवहिंसा आदिसे रहित और अत्यंत क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जपसे अभिमंत्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया हैं अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता हैं | शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्ति को बढाता हैं | शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं | जिस किसी भी उपायसे जहाँ कहीं भी भूतलपर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौनभाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसीपर प्रकट न करे |भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य प्रकाशित करे | शिवमंत्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं |
– ॐ नम: शिवाय –
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