Friday, July 20, 2018

भगवत्परमेशाने भक्तिरव्यभिचारिणी। जायते सततं तत्र यत्र गीताभिनन्दनम् 2

भगवत्परमेशाने भक्तिरव्यभिचारिणी।
जायते सततं तत्र यत्र गीताभिनन्दनम्।।23।।
 
जहाँ निरन्तर गीता का अभिनंदन होता है वहाँ श्री भगवान परमेश्वर में एकनिष्ठ भक्ति उत्पन्न होती है | (23)
 
स्नातो वा यदि वाऽस्नातः शुचिर्वा यदि वाऽशुचिः।
विभूतिं विश्वरूपं च संस्मरन्सर्वदा शुचिः।।24।।
 
स्नान किया हो या न किया हो, पवित्र हो या अपवित्र हो फिर भी जो परमात्म-विभूति का और विश्वरूप का स्मरण करता है वह सदा पवित्र है | (24)
 
सर्वत्र प्रतिभोक्ता च प्रतिग्राही च सर्वशः।
गीतापाठं प्रकुर्वाणो न लिप्येत कदाचन।।25।।
 
सब जगह भोजन करने वाला और सर्व प्रकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता | (25)
 
यस्यान्तःकरणं नित्यं गीतायां रमते सदा।
सर्वाग्निकः सदाजापी क्रियावान्स च पण्डितः।।26।।
 
जिसका चित्त सदा गीता में ही रमण करता है वह संपूर्ण अग्निहोत्री, सदा जप करनेवाला, क्रियावान तथा पण्डित है | (26)
 
दर्शनीयः स धनवान्स योगी ज्ञानवानपि।
स एव याज्ञिको ध्यानी सर्ववेदार्थदर्शकः।।27।।
 
वह दर्शन करने योग्य, धनवान, योगी, ज्ञानी, याज्ञिक, ध्यानी तथा सर्व वेद के अर्थ को जानने वाला है | (27)
 
गीतायाः पुस्तकं यत्र नित्यं पाठे प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि भूतले।।28।।
 
जहाँ गीता की पुस्तक का नित्य पाठ होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं | (28)
 
निवसन्ति सदा गेहे देहेदेशे सदैव हि।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये।।29।।
 
उस घर में और देहरूपी देश में सभी देवों, ऋषियों, योगियों और सर्पों का सदा निवास होता है |(29)
 
गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या सरस्वती।
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी।।30।।
अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भयनाशिनी।
वेदत्रयी पराऽनन्ता तत्त्वार्थज्ञानमंजरी।।31।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते परमं पदम्।।32।।
 
गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी, परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी (तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त होता है | (30,31,32)
 
यद्यत्कर्म च सर्वत्र गीतापाठं करोति वै।
तत्तत्कर्म च निर्दोषं कृत्वा पूर्णमवाप्नुयात्।।33।।
 
मनुष्य जो-जो कर्म करे उसमें अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कर्म निर्दोषता से संपूर्ण करके उसका फल प्राप्त करता है | (33)
 
पितृनुद्दश्य यः श्राद्धे गीतापाठं करोति वै।
संतुष्टा पितरस्तस्य निरयाद्यान्ति सदगतिम्।।34।।
 
जो मनुष्य श्राद्ध में पितरों को लक्ष्य करके गीता का पाठ करता है उसके पितृ सन्तुष्ट होते हैं और नर्क से सदगति पाते हैं | (34)
 
गीतापाठेन संतुष्टाः पितरः श्राद्धतर्पिताः।
पितृलोकं प्रयान्त्येव पुत्राशीर्वादतत्पराः।।35।।
 
गीतापाठ से प्रसन्न बने हुए तथा श्राद्ध से तृप्त किये हुए पितृगण पुत्र को आशीर्वाद देने के लिए तत्पर होकर पितृलोक में जाते हैं | (35)
 
लिखित्वा धारयेत्कण्ठे बाहुदण्डे च मस्तके।
नश्यन्त्युपद्रवाः सर्वे विघ्नरूपाश्च दारूणाः।।36।।
 
जो मनुष्य गीता को लिखकर गले में, हाथ में या मस्तक पर धारण करता है उसके सर्व विघ्नरूप दारूण उपद्रवों का नाश होता है | (36)
 
देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।
न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।37।।
हस्तात्त्याक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।38।।
 
भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है | किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता  तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है | (37, 38)
 
जनैः संसारदुःखार्तैर्गीताज्ञानं च यैः श्रुतम्।
संप्राप्तममृतं तैश्च गतास्ते सदनं हरेः।।39।।
 
संसार के दुःखों से पीड़ित जिन मनुष्यों ने गीता का ज्ञान सुना है उन्होंने अमृत प्राप्त किया है और वे श्री हरि के धाम को प्राप्त हो चुके हैं | (39)
 
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गतास्ते परमं पदम्।।40।।
 
इस लोक में जनकादि की तरह कई राजा गीता का आश्रय लेकर पापरहित होकर परम पद को प्राप्त हुए हैं | (40)
 
गीतासु न विशेषोऽस्ति जनेषूच्चावचेषु च।
ज्ञानेष्वेव समग्रेषु समा ब्रह्मस्वरूपिणी।।41।।
 
गीता में उच्च और नीच मनुष्य विषयक भेद ही नहीं हैं, क्योंकि गीता ब्रह्मस्वरूप है अतः उसका ज्ञान सबके लिए समान है | (41)
 
यः श्रुत्वा नैव गीतार्थं मोदते परमादरात्।
नैवाप्नोति फलं लोके प्रमादाच्च वृथा श्रमम्।।42।।
 
गीता के अर्थ को परम आदर से सुनकर जो आनन्दवान नहीं होता वह मनुष्य प्रमाद के कारण इस लोक में फल नहीं प्राप्त करता है किन्तु व्यर्थ श्रम ही प्राप्त करता है | (42)
 
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।
वृथा पाठफलं तस्य श्रम एव ही केवलम्।।43।।
 
गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यर्थ होता है और पाठ केवल श्रमरूप ही रह जाता है |
 
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीतापाठं करोति यः।
श्रद्धया यः श्रृणोत्येव दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।44।।
 
इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो श्रद्धा से सुनता है वह दुर्लभ गति को प्राप्त होता है |(44)
 
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्।।45।।
 
गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा है | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल को प्राप्त होता है | (45)
इति श्रीवाराहपुराणोद्धृतं श्रीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समाप्तम् |
इति श्रीवाराहपुराणान्तर्गत श्रीमदगीतामाहात्म्यानुंसंधान समाप्त |
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