*भगवान शिव द्वारा प्रेम का रहस्य*
ये तो सभी जानते है की पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी थी। वो हर रोज अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती रहती थी और उन पर चर्चा भी करती थी।
एक दिन पार्वती ने शिव से कहा - महादेव कृप्या बताइए की प्रेम क्या है, प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य। आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है।
शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुई है। तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर छिपा है।
पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग कर मुझसे दूर चली गई तो मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सबकुछ निरर्थक और निराधार हो गया। मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी। अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती। ये ही तो प्रेम है पार्वती। तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना ये ही प्रेम है।
तुम्हारा और मेरा पुन: मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है। तुम्हारा पार्वती के रूप में पुन: जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मेरे वैराग्य से मुझे बाहर निकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है।
जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है। तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विश्वास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है।
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है। तुम्हे खुश देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती।
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी। जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिव्हा बाहर निकली, वही तो प्रेम था पार्वती।
जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जो कि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ कि मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ। जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ। इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ। तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ। यही तो प्रेम है
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती। प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?
ये तो सभी जानते है की पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी थी। वो हर रोज अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती रहती थी और उन पर चर्चा भी करती थी।
एक दिन पार्वती ने शिव से कहा - महादेव कृप्या बताइए की प्रेम क्या है, प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य। आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है।
शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुई है। तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर छिपा है।
पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग कर मुझसे दूर चली गई तो मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सबकुछ निरर्थक और निराधार हो गया। मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी। अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती। ये ही तो प्रेम है पार्वती। तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना ये ही प्रेम है।
तुम्हारा और मेरा पुन: मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है। तुम्हारा पार्वती के रूप में पुन: जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मेरे वैराग्य से मुझे बाहर निकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है।
जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है। तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विश्वास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है।
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है। तुम्हे खुश देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती।
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी। जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिव्हा बाहर निकली, वही तो प्रेम था पार्वती।
जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जो कि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ कि मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ। जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ। इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ। तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ। यही तो प्रेम है
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती। प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?
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