Saturday, August 18, 2018

★ प्रभु की माया डराती और नचाती केवल उन्हीं लोगों को हैं ,जो भीतर ही भीतर मन में चोरी छिपे किसी


    ★ प्रभु की माया डराती  और नचाती केवल उन्हीं लोगों को हैं ,जो भीतर ही भीतर मन में चोरी छिपे किसी
   वस्तु या प्राणी के लिए मोह या आसक्ति लिए बैठे हैं
    माया का तो काम ही है नचाना .....
   परन्तु डरने की जरूरत भी क्या है ..?? 
        माया कौन है पहले ये तो जान लें.....
   माया  श्री राधा रानी का ही एक अन्य  रूप है जितनी भक्ति मति राधे भोली भाली करुणा दया की सागर है, उनका यही दूसरा रूप प्रकृति (माया) है...!!
     भक्ति कौन है ...??
   श्री राधे जी का ही एक और रूप भक्ति है....!!
  तो डरना तो केवल उनको ही चाहिए जो मुँह में जुबान पर कुछ , तथा अंदर से मन और चित्त से संसारीक होते हैं ......
     सीधी सीधी बात है ,ये बात कोई मैंने किसी कथा कहानी में तो नही पढ़ी है पर अनुभव से ही लिख रही हूँ
   की वास्तव मेँ यही सत्य है कि या तो तुम परमात्मा की खोज में अगर सच में ही निकले हो ,तो एक दिन तुम स्वयम में ही उसको पा जाओगे, और यदि आपको किसी गुरू जन का आशीर्वाद प्राप्त है और वे आपको कहते है कि पहले खुद का साक्षात्कार करो,तो भी अन्ततः तुम्हारी भेंट परमात्मा से हो ही जायेगी......
   यानी आप शुरुआत कहीँ से भी करें, पर सच्चाई आपकी खोज को स्वयम की खोज तक ही ला कर खड़ा कर ही  देगी.......!!
   जो दोष हम अभी अपने में नही देख पाते हैं ,फिर वो
   अंदर बैठा परमात्मा आपको आपकी सारी कमियां और
     बुराईओं से पूरी तरह अवगत करा देंगें.......!!
    कहीं भी कोई भी महान से महान आपको आपके विषय में इतना नहीँ जान पाता है पर आप स्वयम को ऐसा जान जाओगे पर शर्त सिर्फ इतनी हो कि आपकी खोज निरन्तर सच्चाई से दृढ चलनी चाहिए
       श्री राधे जो की बड़ी की करुणामयी है वे अपनी शरण और अपना सानिध्य सिर्फ उन्ही को देती हैं, जो
      उनके जैसा ही सीधा,निश्चल,निष्कपट, और सुस्पष्ट हो
   तभी वे भक्ति रुपी मार्ग प्रशस्त कर के उस भक्त को श्री
   हरि की प्राप्ति होने देती हैं.......
     जो पाना हो कृष्ण का संग तो खुद में  राधा जी के
         कुछ गुण तो लाने ही  होंगे ....
   वे हम सभी संसारीक और कलुषित लोगो की तरह ईर्ष्यालु नहीँ हैं, परन्तु वहीँ दूसरी ओर कोई मुख से कहे
     की हम तो बड़े भक्त हैं, तथा श्री हरि भक्ति के सिवा
  कुछ चाहते नहीँ, तो पहले अच्छे से अपने मन को टटोल लें कि, क्या सचमुच ही हम इस संसार के प्रपंच से दूरी
    चाहते भी हैं, क्या हम सचमुच ही कोई भोग की इच्छा
   नहीँ रखते हैं, तो माया देवी अपने आप आपका रास्ते से
  हट जायेगी तथा आपको भक्ति रुपी देवी अपने ज्ञान और वैराग्य दो पुत्रों के साथ अपना लेगी.........!!
       यही है सारा खेल माया का की क्यों और कैसे जन को वो नचाती है,  अक्सर संसारी लोग मिश्रित भक्ति करते हैं जिसमें वे भगवान को भी जब जब जरूरत होती है खूब प्यार से याद करते है और मतलब पूरा होते ही टाटा बाय बाय हो जाती है फिर केवल नाम की भक्ति होती है
    है.... जिसकी वजह से माया देवी जबर्दस्त पटखनी पर पटखनी देती है और नचाती है, कोई नाम और यश के पीछे पागल, तो कोई धन और माया के पीछे, तो कोई प्रेम प्रीत का मारा .......ये सभी भोग की भौतिक वस्तुओँ के
  अंर्तगत ही आते हैं......
   खुश केवल वे  ही रह सकते हैं, जो इस संसार के चार दिन का मेला समझ इसमें कृष्ण नाम की मस्ती के मजे लेते है, और उन्हें ये पता होता है कि भाई चार दिन बाद अपने  घर भी वापिस जाना है.............!!
       कृष्ण की ख़ुशी को ही जो अपना ध्येय बना कर
   उनकी ही प्रसन्नता के लिए जो जीवन समर्पित करते है तो असली ख़ुशी और प्रसन्नता उन्हीं की झोली में आती है.........क्योंकि कृष्ण का तो नाम ही  आनंद और उल्लास ही है ,तो जिनके हिस्से में ये आते हैं तो  किसी बड़े से बड़े  दुःख की क्या औकात जो भक्त को उनके मार्ग से ज़रा भी विचलित कर दे....

           

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