कृष्ण प्रेम में पगी ताज बेगम
उस मुस्लिम युवती का नाम था ताज खां बेगम। वह अतिशय रूपवती, गुणवती, चरित्रवान तथा बहुत ही भावुक-ह्मदया थी। कुंवारी थी, क्योंकि अभी तक किसी मुस्लिम युवक ने उसे विवाह योग्य नहीं समझा था। उसे कविताओं से प्रेम था और कभी-कभी वह भी कुछ लिख लेती थी।
एक दिन वह आगरा में पालकी पर आरूढ़ होकर कहीं जा रही थी, तो उसने एक जगह देखा कि एक ऊंचे चबूतरे पर आसनस्थ कोई महाशय ऐसी कथा कह रहे हैं कि कहीं पत्ता तक नहीं खड़कता या हिलता। सैकड़ों श्रोतागण, जिनमें लड़कियां-महिलाएं भी थीं, सभी कथा-रस पान करने में तन्मय हैं, स्वयं को भूले हुए हैं। ताज खां बेगम ने भी सोचा कि इस कथा में ऐसी क्या खूबी है कि सुनने वाले इतने भाव-विभोर हैं। तभी उसके कानों से भी ब्राज-वल्लभ कुंवर कन्हेया श्रीकृष्ण के विषय में कोई रोचक प्रसंग की ध्वनि आ टकराई। उसने अपनी पालकी वहीं रुकवा दी और देर तक वह भी उस कथा-रस का पान रुचिपूर्वक करती रही। जीवन में आज पहली बार उसे श्रीकृष्ण-लीला की कुछ ऐसी आकर्षक और चित्त-हारिणी जानकारी हुई कि उसे लगा, ओह! हिन्दुओं का यह कृष्ण-कन्हैया ऐसा अनोखा था, इतना सुन्दर-सौम्य और सबको लुभाने वाला कि उसे देखकर, उसकी मनो-मुग्धकारी बातें सुनकर ब्राज के स्त्री-पुरुष रास्ता चलना भूल जाते थे। ताज बेगम उसी वंशी वाले मन मोहन श्रीकृष्ण की विलक्षण लीला-कथा सुनती रही। तब वहां लोगों ने सोचा कि इस पठान लड़की को हुआ क्या है कि पालकी रुकवाकर सुध-बुध बिसारे इस तरह श्रीकृष्ण-कथा सुनने बैठी है! पर ताज बेगम के मन-मानस और आत्मा में तो जैसे उस मुरलीधर की ऐसी कुछ दिव्य छवि आ रमी थी कि वह इस वक्त दीन-दुनिया सभी कुछ भूली हुई सिर्फ उसी वंशी वाले नन्दलाल की बात सोच-सोचकर व्याकुल सी हुई जा रही थी, जिसके लिए बरसाने के वृषभानु गोप की बेटी राधा अपना जीवन-सर्वस्व न्योछावर कर अत्याचारी कंस के विरुद्ध चल रहे संघर्ष में आ कूदी थी। और आज एकाएक पहली बार ही ताज बेगम के मन में यह तड़प पैदा हो गई कि, "काश! मेरी किस्मत में उसी राधा की सखी-सहेली होने और उसी के रास्ते पर चलने का सुनहरा मौका लिखा होता तो मैं भी उस मदनलाल के नजदीक ही रहती, उसी के इशारे पर यह जिन्दगी कुरबान कर देती! इस वक्त उसे ख्याल न रहा कि वह तो इस्लाम को मानती है, कलमा-कुरान-नमाज की पाबन्द है, रमजान महीने में रोजे रखती है। खैर, पंडित जी की कथा ने विराम लिया तो ताज बेगम को भी अपनी मंजिल याद आई और उसने पालकी आगे बढ़ाने को कहा, लेकिन वह दिन, वह क्षण उसके जीवन में सदा के लिए अमिट हो गया। उसे हर क्षण, रात-दिन उसी वंशी वाले कृष्ण-कन्हैया की याद आती रहती। उसकी वह दिव्य झांकी, जिसे उसने राह चलते उस कथावाचक की वाणी के माध्यम से अपने कल्पना-चक्षुओं से देखा था और अब जिसके प्रत्यक्ष दर्शनों की कामना उसके रोम-रोम को बेचैन कर रही थी कि "हे सांवले, सलोने, नन्द के कुमार! मैं कब तुम्हारा दर्शन कर पाऊंगी, मेरी खुशकिस्मती का वह सुनहरा दिन कब आएगा?' और फिर अपने व्याकुल प्राणों की पीर ताज बेगम ने इन शब्दों में व्यक्त की, जो आज तक हिन्दी साहित्य की गरिमा बने हुए हैं-
"सुनो दिलजानी! मेरे दिल की कहानी, तेरे हाथ हूं बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देव-पूजा ठानी, तजे कलमा-कुरान, मैं नमाज हूं भुलानी तेरे गुनन गहूंगी मैं।।
सांवला सलोना, सिरताज, सिर कुल्लेदार! तेरे नेह-दाघ में निदाघ है दहूंगी मैं।
नन्द के कुमार! कुर्बान तेरी सूरत पर, हूं तो मुगलानी, हिन्दुआनी है रहूंगी मैं।।
कलमा-कुरान छोड़ आई हूं तिहारे पास, भाव में, भजन में मैं दिल को लगाऊंगी।
पाऊंगी विनोद भर-भर के सुबह-शाम, गाऊंगी तिहारे गीत नेक न लजाऊंगी।।
खाऊंगी प्रसाद प्रभु-मंदिर में जाप-जाप, माथे पे तिहारी पद-रज को चढ़ाऊंगी।
आशिक-दिवानी बन, श्याम-पद पूजि-पूजि, प्रेम में पगानी राधिकी-सी बन जाऊंगी।।'
ऐसी विलक्षण दीवानी, श्रीकृष्ण-प्रेम में पगी राधिका बनने को आकुल-व्याकुल थी ताज बेगम कि उसे मुस्लिम समाज द्वारा अपनी बदनामी होने का भी कतई डर नहीं था। वह कहा करती थी, धन्य ताज खां बेगम! तेरा प्रभु-प्रेम-पगा जीवन पूरे भारत के लिए प्रेरणादायक रहा है।
🙏🌹Jai jai Shri Radhey Krishna ji 🌹🙏
उस मुस्लिम युवती का नाम था ताज खां बेगम। वह अतिशय रूपवती, गुणवती, चरित्रवान तथा बहुत ही भावुक-ह्मदया थी। कुंवारी थी, क्योंकि अभी तक किसी मुस्लिम युवक ने उसे विवाह योग्य नहीं समझा था। उसे कविताओं से प्रेम था और कभी-कभी वह भी कुछ लिख लेती थी।
एक दिन वह आगरा में पालकी पर आरूढ़ होकर कहीं जा रही थी, तो उसने एक जगह देखा कि एक ऊंचे चबूतरे पर आसनस्थ कोई महाशय ऐसी कथा कह रहे हैं कि कहीं पत्ता तक नहीं खड़कता या हिलता। सैकड़ों श्रोतागण, जिनमें लड़कियां-महिलाएं भी थीं, सभी कथा-रस पान करने में तन्मय हैं, स्वयं को भूले हुए हैं। ताज खां बेगम ने भी सोचा कि इस कथा में ऐसी क्या खूबी है कि सुनने वाले इतने भाव-विभोर हैं। तभी उसके कानों से भी ब्राज-वल्लभ कुंवर कन्हेया श्रीकृष्ण के विषय में कोई रोचक प्रसंग की ध्वनि आ टकराई। उसने अपनी पालकी वहीं रुकवा दी और देर तक वह भी उस कथा-रस का पान रुचिपूर्वक करती रही। जीवन में आज पहली बार उसे श्रीकृष्ण-लीला की कुछ ऐसी आकर्षक और चित्त-हारिणी जानकारी हुई कि उसे लगा, ओह! हिन्दुओं का यह कृष्ण-कन्हैया ऐसा अनोखा था, इतना सुन्दर-सौम्य और सबको लुभाने वाला कि उसे देखकर, उसकी मनो-मुग्धकारी बातें सुनकर ब्राज के स्त्री-पुरुष रास्ता चलना भूल जाते थे। ताज बेगम उसी वंशी वाले मन मोहन श्रीकृष्ण की विलक्षण लीला-कथा सुनती रही। तब वहां लोगों ने सोचा कि इस पठान लड़की को हुआ क्या है कि पालकी रुकवाकर सुध-बुध बिसारे इस तरह श्रीकृष्ण-कथा सुनने बैठी है! पर ताज बेगम के मन-मानस और आत्मा में तो जैसे उस मुरलीधर की ऐसी कुछ दिव्य छवि आ रमी थी कि वह इस वक्त दीन-दुनिया सभी कुछ भूली हुई सिर्फ उसी वंशी वाले नन्दलाल की बात सोच-सोचकर व्याकुल सी हुई जा रही थी, जिसके लिए बरसाने के वृषभानु गोप की बेटी राधा अपना जीवन-सर्वस्व न्योछावर कर अत्याचारी कंस के विरुद्ध चल रहे संघर्ष में आ कूदी थी। और आज एकाएक पहली बार ही ताज बेगम के मन में यह तड़प पैदा हो गई कि, "काश! मेरी किस्मत में उसी राधा की सखी-सहेली होने और उसी के रास्ते पर चलने का सुनहरा मौका लिखा होता तो मैं भी उस मदनलाल के नजदीक ही रहती, उसी के इशारे पर यह जिन्दगी कुरबान कर देती! इस वक्त उसे ख्याल न रहा कि वह तो इस्लाम को मानती है, कलमा-कुरान-नमाज की पाबन्द है, रमजान महीने में रोजे रखती है। खैर, पंडित जी की कथा ने विराम लिया तो ताज बेगम को भी अपनी मंजिल याद आई और उसने पालकी आगे बढ़ाने को कहा, लेकिन वह दिन, वह क्षण उसके जीवन में सदा के लिए अमिट हो गया। उसे हर क्षण, रात-दिन उसी वंशी वाले कृष्ण-कन्हैया की याद आती रहती। उसकी वह दिव्य झांकी, जिसे उसने राह चलते उस कथावाचक की वाणी के माध्यम से अपने कल्पना-चक्षुओं से देखा था और अब जिसके प्रत्यक्ष दर्शनों की कामना उसके रोम-रोम को बेचैन कर रही थी कि "हे सांवले, सलोने, नन्द के कुमार! मैं कब तुम्हारा दर्शन कर पाऊंगी, मेरी खुशकिस्मती का वह सुनहरा दिन कब आएगा?' और फिर अपने व्याकुल प्राणों की पीर ताज बेगम ने इन शब्दों में व्यक्त की, जो आज तक हिन्दी साहित्य की गरिमा बने हुए हैं-
"सुनो दिलजानी! मेरे दिल की कहानी, तेरे हाथ हूं बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देव-पूजा ठानी, तजे कलमा-कुरान, मैं नमाज हूं भुलानी तेरे गुनन गहूंगी मैं।।
सांवला सलोना, सिरताज, सिर कुल्लेदार! तेरे नेह-दाघ में निदाघ है दहूंगी मैं।
नन्द के कुमार! कुर्बान तेरी सूरत पर, हूं तो मुगलानी, हिन्दुआनी है रहूंगी मैं।।
कलमा-कुरान छोड़ आई हूं तिहारे पास, भाव में, भजन में मैं दिल को लगाऊंगी।
पाऊंगी विनोद भर-भर के सुबह-शाम, गाऊंगी तिहारे गीत नेक न लजाऊंगी।।
खाऊंगी प्रसाद प्रभु-मंदिर में जाप-जाप, माथे पे तिहारी पद-रज को चढ़ाऊंगी।
आशिक-दिवानी बन, श्याम-पद पूजि-पूजि, प्रेम में पगानी राधिकी-सी बन जाऊंगी।।'
ऐसी विलक्षण दीवानी, श्रीकृष्ण-प्रेम में पगी राधिका बनने को आकुल-व्याकुल थी ताज बेगम कि उसे मुस्लिम समाज द्वारा अपनी बदनामी होने का भी कतई डर नहीं था। वह कहा करती थी, धन्य ताज खां बेगम! तेरा प्रभु-प्रेम-पगा जीवन पूरे भारत के लिए प्रेरणादायक रहा है।
🙏🌹Jai jai Shri Radhey Krishna ji 🌹🙏
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