शिव पुराण अध्याय - 5
चंचुला के प्रयत्न से पार्वती जी कि आज्ञा पाकर तुम्बरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण कि कथा सुनाकर बिन्दुग का पिचाशयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनो दम्पति का शिव धाम में सुखी होना ।
सुतजी बोलते है - शौनक ! एक दिन परमानन्द मे मग्न हुइ चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनो हाथ जोरकर वह उनकी स्तुति करने लगी ।
चंचुला बोली - गिरिराज नन्दनी ! स्कन्दमाता उमे । मनुष्यो ने सदा आपका सेवन किया है । समस्त सुखो को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रहास्वरुपिणी है । विष्णु और ब्रम्हा आदी देवताओ द्वारा सेव्य है । आप हि सगुणा और निर्गुणा है तथा आप हि सुक्ष्मा सचिदानन्दस्वरुपिणी आघा प्रकृति है | आप ही संसार की सृष्टि ,पालन और संहार करने वाली है | तीनो गुणों का आश्रय भी आप ही है | ब्रम्हा ,बिष्णु और महेश्वर - इन तीनो देवताओ का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करनेवाली पराशक्ति आप ही है |
अब सूतजी कहते है - शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चूकि थी , वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी । उसके नेत्रो मे प्रेम के ऑसू उमड आये थे । तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को संबोधित करके इस प्रकार कहा -
पार्वती जी बोली - सखी चंचुले ! सुन्दरी ! मै तुम्हारी इस कि हुइ स्तुति से बहुत प्रसन्न हु । बोलो क्या वर मांगती हो ? तुमहारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं हैं ।
चंचुला बोली - निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहॉ है , उनकी कैसी गति हुई है - यह मै नही जानती ! कल्याणमयी दिनवत्सले ! मै अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकु , वैसा ही उपाय किजिये । महेश्वरी ! महादेवी ! मेरे पति एक शुद्रजातिये वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप मे हि डुबे रहते थे । उनकी मौत मुझसे पहले हि हो गयी थी , ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए गिरिजा बोली - बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बडा पापी था । उसका अंतःकरण बहुत हि दुषित था । वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामुढ मरने के बाद नरक मे पडा अनगिनत बर्षो तक नरक मे नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बन के बैठा है । इस समय वह पिचाश अवस्था मे हि है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है । वह दुष्ट वही वायु पिकर रहता और वही सदा सब प्रकार कष्ट सहता है ।
अब सुतजी कहते है - शौनक ! गौरीदेवी कि यह बात सुनकर उतम व्रत का पालन करनेवाली चंचुला पति के महान दुःख से दुःखी हो गयी । फिर मन को स्थिर कर के उस ब्राह्रणपत्नी ने व्यथित ह्रदय से महेश्वरि को प्रणाम कर के पुनः पुछा ।
चंचुला बोली - महेश्वरि ¡ महादेवी ¡ मुझपर किरपा किजिये और दुषित कर्म करने मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दिजिये । देवि । कुत्सित बुद्धी वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उतम गति प्राप्त हो सकती है , यह शिघ्र बताइये । आपको नमस्कार है ।
पार्वतीजी ने कहा - तुम्हारा पति अगर शिव पुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पर कर के उत्तम गति का भागी हो सकता है |
अमृत के समान मधुर अक्षरो से युक्त गौरी देवी का वह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोर मस्तक झुकाकर उन्हे बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापो कि शुद्धि तथा उतम गति कि प्राप्ती के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना कि की, " मेरे पति को शिवपुराण सुनाने कि व्यवस्था होनी चाहिये " उस ब्राह्रणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बडी दया आ गयी । उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान शिव कि उतम किर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नता पुर्वक इस प्रकार कहा - तुम्बरो ! तुम्हारी भगवान शिव में प्रिति है । तुम मेरे मन कि बातो को जानकर मेरे अभिष्ट कार्यो को सिद्ध करने वाले हो । इसलिये मै तुमसे एक बात कहती हु । तुम्हारा कल्याण हो । तुम मेरी इस सखी के साथ शिघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ । वहॉ एक महाघोर और भयंकर पिचाश रहता है । उसका वृतांत तुम आरम्भ से ही सुनो | मै तुमसे प्रसन्नतापुर्वक सब कुछ बताती हु । पुर्व जन्म मे वह पिचाश बिन्दुग नामक ब्राह्रण था । मेरी इस सखी चंचुला का पति था , परन्तु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया ।स्नान -सन्धया आदि नित्यकर्म छोरकर अपवित्र रहने लगा । क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मुढता छा गयी थी - वह कर्तव्याकर्तव्य जा विवेक नहीं कर पाता था । अभक्ष्य भक्षण, सज्जनो से द्वेष और दुषित वस्तुओ का दान लेना - यही उसका स्वभाविक कर्म बन गया था । वह अस्त्र-सस्त्र लेकर हिंसा करता , बायें हाथ से खाता , दीनों को सताता और क्रुरता पुर्वक पराये घरो मे आग लगा देता था । चाण्डालो से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के सम्पर्क मे रहता था । बडा दुष्ट था । वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग कर के दुष्टो के संग मे हि आनंद मानता था । वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फंसा रहा । फिर अंतकाल आने पर उसकी मौत हो गयी । वह पापीयो के भोगस्थान घोर यमपुर मे गया और वहॉ बहुत से नरको का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बना हुआ है । वही वह दुष्ट पिचाष अपने पापो का फल भोग रहा है । तुम उसके आगे यत्न पुर्वक शिवपुराण कि उस दिव्य कथा का प्रवचन करो , जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापो का नाश करने वाली है । शिव पुराण कि कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है | उससे उसका हृदय शिघ्र हि समस्त पापो से सुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा । उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिचाश को मेरी आज्ञा से विमान पर बैठा कर तुम भगवान शिव के समीप ले आओ ।
अब सुतजी कहते है - शौनक ! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बरु मन - हि - मन बडे प्रसन्न हुए । उन्होने अपने भाग्य कि सराहना की । तत्पश्चात उस पिचाश कि सती साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिये मित्र तुम्बुरु वेगपुर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये , जहॉ वह पिचाश रहता था । वहॉ उन्होने उस पिशाच को देखा । उसका शरिर विशाल था । ठोडी बहुत बडी थी । वह कभी हंसता , कभी रोता , कभी उछलता था । उसकी आकृति बड़ी विकराल थी | भगवान शिव की उत्तम कृति का गान करने वाले महावली तुम्बुरु ने उस भयंकर पिशाच को पाशो मे बांध लिया । तदन्नतर तुम्बुरु ने शिवपुराण कि कथा बॉचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मंडप आदि कि रचना की । इतने मे ही सम्पुर्ण लोको मे बडे वेग से यह प्रचार हो गया की देवी पार्वती कि आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिव पुराण कि उतम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये है । फिर तो उस कथा के सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शिघ्र ही वहॉ जा पहुचे । आदर पुर्वक शिव पुराण सुनने के लिये आये हुए लोगो का उस पर्वत पर बडा अधभुत और कल्याणकारी समाज जुट गया । फिर तुम्बरु ने उस पिशाच कि पासो मे बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ मे वीणा लेकर गौरी -पति कि कथा का आरंभ किया। पहली अर्थात विधेश्वरसहिंता से लेकर सातवीं वायुसहिंता तक महात्मय सहित शिवपुराण कि कथा उन्होने स्पष्ट वर्णन किया । सातों सहिंताओ सहित शिवपुराण का आदरपुर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पुर्ण रुपसे क्रितार्थ हो गये । उस परमपुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापो को धोकर उस पैशाचिक शरिर को त्याग दिया । फिर तो शिघ्र हि उसका रुप द्विव्य हो गया । अंगकान्ती गौर वर्ण कि हो गयी । शरिर पर स्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार से पुरोषोचित आभुषण उसको अंगो को उद्धासित करने लगे । वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखर रुप हो गया । इस प्रकार दिव्य देहधारी रुप होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वंम भी पार्वतीवल्लभ भगवान शिव का गुनगान करने लगा । उसकी स्त्री को इस प्रकार से सुशोभीत देख वे सभी देवर्षि बडे विस्मित हुए । उनका चित परमानन्द से परिपुर्ण हो गया । भगवान महेश्वर का वह अदभुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम क्रितार्थ हो प्रेमपुर्वक श्री शिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गये । दिव्यरुपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपुर्वक आकाश मे स्थित हो बडी शोभा पाने लगे ।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणो का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शिघ्र ही शिवधाम मे जा पहुचा । वहॉ भगवान महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापुर्वक बिन्दुग का बडा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया । उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजी की सखी हो गयी । उस घनीभुत ज्योति स्वरुप परमानन्दमय सनातनधाम मे अविचल निवास
पाकर वे दोनो दम्पति परम सुखी हो गये ।
नमः शिवाय नमः शिवाय नमः शिवाय
चंचुला के प्रयत्न से पार्वती जी कि आज्ञा पाकर तुम्बरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण कि कथा सुनाकर बिन्दुग का पिचाशयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनो दम्पति का शिव धाम में सुखी होना ।
सुतजी बोलते है - शौनक ! एक दिन परमानन्द मे मग्न हुइ चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनो हाथ जोरकर वह उनकी स्तुति करने लगी ।
चंचुला बोली - गिरिराज नन्दनी ! स्कन्दमाता उमे । मनुष्यो ने सदा आपका सेवन किया है । समस्त सुखो को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रहास्वरुपिणी है । विष्णु और ब्रम्हा आदी देवताओ द्वारा सेव्य है । आप हि सगुणा और निर्गुणा है तथा आप हि सुक्ष्मा सचिदानन्दस्वरुपिणी आघा प्रकृति है | आप ही संसार की सृष्टि ,पालन और संहार करने वाली है | तीनो गुणों का आश्रय भी आप ही है | ब्रम्हा ,बिष्णु और महेश्वर - इन तीनो देवताओ का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करनेवाली पराशक्ति आप ही है |
अब सूतजी कहते है - शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चूकि थी , वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी । उसके नेत्रो मे प्रेम के ऑसू उमड आये थे । तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को संबोधित करके इस प्रकार कहा -
पार्वती जी बोली - सखी चंचुले ! सुन्दरी ! मै तुम्हारी इस कि हुइ स्तुति से बहुत प्रसन्न हु । बोलो क्या वर मांगती हो ? तुमहारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं हैं ।
चंचुला बोली - निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहॉ है , उनकी कैसी गति हुई है - यह मै नही जानती ! कल्याणमयी दिनवत्सले ! मै अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकु , वैसा ही उपाय किजिये । महेश्वरी ! महादेवी ! मेरे पति एक शुद्रजातिये वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप मे हि डुबे रहते थे । उनकी मौत मुझसे पहले हि हो गयी थी , ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए गिरिजा बोली - बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बडा पापी था । उसका अंतःकरण बहुत हि दुषित था । वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामुढ मरने के बाद नरक मे पडा अनगिनत बर्षो तक नरक मे नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बन के बैठा है । इस समय वह पिचाश अवस्था मे हि है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है । वह दुष्ट वही वायु पिकर रहता और वही सदा सब प्रकार कष्ट सहता है ।
अब सुतजी कहते है - शौनक ! गौरीदेवी कि यह बात सुनकर उतम व्रत का पालन करनेवाली चंचुला पति के महान दुःख से दुःखी हो गयी । फिर मन को स्थिर कर के उस ब्राह्रणपत्नी ने व्यथित ह्रदय से महेश्वरि को प्रणाम कर के पुनः पुछा ।
चंचुला बोली - महेश्वरि ¡ महादेवी ¡ मुझपर किरपा किजिये और दुषित कर्म करने मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दिजिये । देवि । कुत्सित बुद्धी वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उतम गति प्राप्त हो सकती है , यह शिघ्र बताइये । आपको नमस्कार है ।
पार्वतीजी ने कहा - तुम्हारा पति अगर शिव पुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पर कर के उत्तम गति का भागी हो सकता है |
अमृत के समान मधुर अक्षरो से युक्त गौरी देवी का वह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोर मस्तक झुकाकर उन्हे बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापो कि शुद्धि तथा उतम गति कि प्राप्ती के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना कि की, " मेरे पति को शिवपुराण सुनाने कि व्यवस्था होनी चाहिये " उस ब्राह्रणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बडी दया आ गयी । उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान शिव कि उतम किर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नता पुर्वक इस प्रकार कहा - तुम्बरो ! तुम्हारी भगवान शिव में प्रिति है । तुम मेरे मन कि बातो को जानकर मेरे अभिष्ट कार्यो को सिद्ध करने वाले हो । इसलिये मै तुमसे एक बात कहती हु । तुम्हारा कल्याण हो । तुम मेरी इस सखी के साथ शिघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ । वहॉ एक महाघोर और भयंकर पिचाश रहता है । उसका वृतांत तुम आरम्भ से ही सुनो | मै तुमसे प्रसन्नतापुर्वक सब कुछ बताती हु । पुर्व जन्म मे वह पिचाश बिन्दुग नामक ब्राह्रण था । मेरी इस सखी चंचुला का पति था , परन्तु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया ।स्नान -सन्धया आदि नित्यकर्म छोरकर अपवित्र रहने लगा । क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मुढता छा गयी थी - वह कर्तव्याकर्तव्य जा विवेक नहीं कर पाता था । अभक्ष्य भक्षण, सज्जनो से द्वेष और दुषित वस्तुओ का दान लेना - यही उसका स्वभाविक कर्म बन गया था । वह अस्त्र-सस्त्र लेकर हिंसा करता , बायें हाथ से खाता , दीनों को सताता और क्रुरता पुर्वक पराये घरो मे आग लगा देता था । चाण्डालो से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के सम्पर्क मे रहता था । बडा दुष्ट था । वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग कर के दुष्टो के संग मे हि आनंद मानता था । वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फंसा रहा । फिर अंतकाल आने पर उसकी मौत हो गयी । वह पापीयो के भोगस्थान घोर यमपुर मे गया और वहॉ बहुत से नरको का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बना हुआ है । वही वह दुष्ट पिचाष अपने पापो का फल भोग रहा है । तुम उसके आगे यत्न पुर्वक शिवपुराण कि उस दिव्य कथा का प्रवचन करो , जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापो का नाश करने वाली है । शिव पुराण कि कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है | उससे उसका हृदय शिघ्र हि समस्त पापो से सुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा । उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिचाश को मेरी आज्ञा से विमान पर बैठा कर तुम भगवान शिव के समीप ले आओ ।
अब सुतजी कहते है - शौनक ! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बरु मन - हि - मन बडे प्रसन्न हुए । उन्होने अपने भाग्य कि सराहना की । तत्पश्चात उस पिचाश कि सती साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिये मित्र तुम्बुरु वेगपुर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये , जहॉ वह पिचाश रहता था । वहॉ उन्होने उस पिशाच को देखा । उसका शरिर विशाल था । ठोडी बहुत बडी थी । वह कभी हंसता , कभी रोता , कभी उछलता था । उसकी आकृति बड़ी विकराल थी | भगवान शिव की उत्तम कृति का गान करने वाले महावली तुम्बुरु ने उस भयंकर पिशाच को पाशो मे बांध लिया । तदन्नतर तुम्बुरु ने शिवपुराण कि कथा बॉचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मंडप आदि कि रचना की । इतने मे ही सम्पुर्ण लोको मे बडे वेग से यह प्रचार हो गया की देवी पार्वती कि आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिव पुराण कि उतम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये है । फिर तो उस कथा के सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शिघ्र ही वहॉ जा पहुचे । आदर पुर्वक शिव पुराण सुनने के लिये आये हुए लोगो का उस पर्वत पर बडा अधभुत और कल्याणकारी समाज जुट गया । फिर तुम्बरु ने उस पिशाच कि पासो मे बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ मे वीणा लेकर गौरी -पति कि कथा का आरंभ किया। पहली अर्थात विधेश्वरसहिंता से लेकर सातवीं वायुसहिंता तक महात्मय सहित शिवपुराण कि कथा उन्होने स्पष्ट वर्णन किया । सातों सहिंताओ सहित शिवपुराण का आदरपुर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पुर्ण रुपसे क्रितार्थ हो गये । उस परमपुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापो को धोकर उस पैशाचिक शरिर को त्याग दिया । फिर तो शिघ्र हि उसका रुप द्विव्य हो गया । अंगकान्ती गौर वर्ण कि हो गयी । शरिर पर स्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार से पुरोषोचित आभुषण उसको अंगो को उद्धासित करने लगे । वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखर रुप हो गया । इस प्रकार दिव्य देहधारी रुप होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वंम भी पार्वतीवल्लभ भगवान शिव का गुनगान करने लगा । उसकी स्त्री को इस प्रकार से सुशोभीत देख वे सभी देवर्षि बडे विस्मित हुए । उनका चित परमानन्द से परिपुर्ण हो गया । भगवान महेश्वर का वह अदभुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम क्रितार्थ हो प्रेमपुर्वक श्री शिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गये । दिव्यरुपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपुर्वक आकाश मे स्थित हो बडी शोभा पाने लगे ।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणो का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शिघ्र ही शिवधाम मे जा पहुचा । वहॉ भगवान महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापुर्वक बिन्दुग का बडा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया । उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजी की सखी हो गयी । उस घनीभुत ज्योति स्वरुप परमानन्दमय सनातनधाम मे अविचल निवास
पाकर वे दोनो दम्पति परम सुखी हो गये ।
नमः शिवाय नमः शिवाय नमः शिवाय
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