Thursday, August 16, 2018

श्री शिवपुराण – माहात्म्य ( post 15 ) विद्येश्वर संहिता अध्याय- ११

श्री शिवपुराण – माहात्म्य  ( post 15 )

                  विद्येश्वर संहिता

                    अध्याय- ११

विषय - शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन तथा शिवपद
की प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मों का विवेचन

ऋषियों ने पूछा – सूतजी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिये ? उसका लक्षण क्या है ? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश-काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये ?

सूतजी ने कहा – महर्षियों ! मैं तुम लोगों के
लिये इस विषय का वर्णन करता हूँ | ध्यान देकर सुनो और समझो | अनुकूल एवं शुभ समयमें किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तटपर
अपनी रूचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये,जहाँ नित्य पूजन हो सके | पार्थिव द्रव्य से, अपनी रूचि के अनुसार क्ल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिव-लिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता
हैं | सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग
की यदि पूजा की जाय तो वह तत्काल
पूजा का फल देनेवाला होता है | यदि चलप्रतिष्ठा
करनी हो तो इसके लिये छोटा-सा शिवलिंग अथवा
विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचलप्रतिष्ठा
करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा
माना गया है | उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग
की पीठसहित स्थापना
करनी चाहिये | शिवलिंग का पीठ
मंडलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के
पायेकी भांति ऊपर-नीचे मोटा और
बीचमें पतला होना चाहिये | ऐसा लिंग-
पीठ महान फल देनेवाला होता हैं | पहले
मिट्टीसे, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से
शिवलिंग का निर्माण हो, उसीसे उसका
पीठ भी बनाना चाहिये |
यही स्थावर (अचलप्रतिष्ठावाले) शिवलिंग
की विशेष बात है | चर (चलप्रतिष्ठावाले)
शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक
ही उपादान होना चाहिये | किन्तु बाणलिंग के लिये
यह नियम नहीं है | लिंग की लम्बाई
निर्माणकर्ता या स्थापना करनेवाले यजमान के बारह अंगुल के
बराबर होनी चाहिये | ऐसे ही शिवलिंग
को उत्तम कहा गया हैं | इससे कम लम्बाई हो तो फलमें
कमी आ जाती है, अधिक हो तो कोई
दोष की बात नहीं हैं | चर लिंग में
भी वैसा ही नियम है |
उसकी लम्बाई कम-से-कम कर्ता के एक अंगुल
के बराबर होनी चाहिये | उससे छोटा होनेपर अल्प
फल मिलता है | किन्तु उससे अधिक होना दोष
की बात नहीं है | यजमान को चाहिये
कि वह पहले शिल्पशास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय
बनवाये, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो |
उसका गर्भगृह बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ और
दर्पण के समान स्वच्छ हो | उसे नौ प्रकार के रत्नों से
विभूषित किया गया हो | उसमें पूर्व और पश्चिम दिशामें दो
मुख्य द्वार हो | जहाँ शिवलिंग की स्थापना
करनी हो, उस स्थान के गर्त में
नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत,
मोती, मूँगा, गोमद और हीरा – इन नौ
रत्नों को तथा अन्य महत्त्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मन्त्रों के
साथ छोड़े | सद्योजात आदि पाँच वैदिक मन्त्रों द्वारा

(ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नम: |
भत्रे भवेनातिभवे भवस्व मां भनेभद्ववाय नम: ||
ॐ वामदेवाय नमो जेष्ठाय नम: श्रेष्ठाय नमो रुद्राय
नम: कालाय नम: कलविकरणाय नमो बलविकारानाय नमो बलाय
नमो बलप्रमथनाय नम: सर्वभुतदमनाय नमो मनोंमश्वाय नम:
| )

शिवलिंग का पाँच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में
हविष्य की अनेक आहुतियाँ दे और परिवारसहित
मेरी पूजा करके गुरुस्वरूप आचार्यको धन से तथा
भाई-बंधुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करे
| याचकों को जड (सुवर्ण, गृह एवं भू-सम्पत्ति) तथा चेतन
(गौ आदि) वैभव प्रदान करे |
स्थावर-जंगम सभी जीवों को
यत्नपूर्वक संतुष्ट करके एक गड्डे में सुवर्ण तथा नौ
प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण
करके परम कल्याणकारी महादेवजी
का ध्यान करे | तत्पश्चात नादघोष से युक्त महामंत्र ओंकार
(ॐ) का उच्चारण करके उक्त गड्डे में शिवलिंग
की स्थापना करके उसे पीठ से
संयुक्त करे | इस प्रकार पीठयुक्त लिंग
की स्थापना करके उसे नित्य-लेप
(दीर्घकालतक टिके रहनेवाले मसाले) से जोडकर
स्थिर करे | इसीप्रकार वहाँ परम सुंदर वेर
(मूर्ति) की भी स्थापना
करनी चाहिये | सारांश यह कि भूमिसंस्कार आदि
की सारी विधि जैसी लिंग
प्रतिष्ठा के लिये कही गयी है,
स्थावर लिंग की सींचने आदि के द्वारा
सेवा करनी चाहिये और जंगम लिंग को आहार एवं
जल आदि देकर तृप्त करना उचित है | उन स्थावर-जंगम
जीवों को सुख पहुँचने में अनुरक्त होना भगवान्
शिवका पूजन है, ऐसा विद्वान पुरुष मानते है | (यों चराचर
जीवों को ही भगवान् शंकर के
प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिये |)
इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध
उपचारोंद्वारा उसका पूजन करे | अपनी शक्ति के
अनुसार नित्य पूजा करनी चाहिये तथा देवालय के
पास ध्वजारोपण आदि करना चाहिये | शिवलिंग साक्षात शिव का
पद प्रदान करनेवाला है | अथवा चर लिंग में षोडशोपचारोंद्वारा
यथोचित रीतीसे क्रमश: पूजन करे |
यह पूजन भी शिवपद प्रदान करनेवाला है |
आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन,
अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत,
गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण,
नीराजन, ननमस्कार और विसर्जन – ये सोलह
उपचार हैं | अथवा अर्घ्य से लेकर नैवेद्यतक विधिवत
पूजन करे | अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण- ये सब
यथाशक्ति नित्य करे | इस तरह किया हुआ शिवका पूजन
शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है | अथवा
किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग में,
ऋषियोंद्वारा स्थापित शिवलिंग में , देवताओंद्वारा स्थापित शिवलिंग
में , अपने-आप प्रकट हुए स्वयम्भूलिंग में तथा अपने द्वारा
नूतन स्थापित हुए शिवलिंग में भी उपचार
समर्पणपूर्वक जैसे-तैसे पूजन करनेसे या पूजन
की सामग्री देने से भी
मनुष्य ऊपर जो कुछ कहा गया हैं, वह सारा फल प्राप्त
कर लेता हैं | क्रमश: परिक्रमा और नमस्कार करने से
भी शिवलिंग शिवपद की प्राप्ति
करानेवाला होता है | यदि निम्नपूर्वक शिवलिंग का दर्शनमात्र
कर लिया जाय तो वह भी कल्याणप्रद होता है |
मिटटी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर-पुष्प,
फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्नसे भी
अपनी रूचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार
उसका पूजन करे अथवा प्रतिदिन दस हजार प्रणवमंत्र
का जप करे अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक
सहस्त्र प्रणव का जप किया करे | यह क्रम
भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला
हैं, ऐसा जानना चाहिये |
जपकाल में मकारांत प्रणव का उच्चारण मन
की शुद्धि करनेवाला होता है | समाधि में
मानसिक जप का विधान है तथा अन्य सब समय
भी उपांशु जप ( धीमें स्वर में
उच्चारण करना की दूसरा कोई सुन न सके |
ऐसे जपको उपांशु कहते हैं |) ही करना
चाहिये | नाद और बिंदु से युक्त ओंकार के उच्चारण को
विद्वान पुरुष ‘समानप्रणव’ कहते है | यदि प्रतिदिन
आदरपूर्वक दस हजार पंचाक्षर मन्त्र का जप किया
जाय अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र
का ही जप किया जाय तो उसे शिवपद
की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये |
ब्राह्मणों के लिये आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षर-मन्त्र
अच्छा बताया गया है | कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र
की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास,
सत्यसे पवित्र अंत:करणवाला ब्राह्मण तथा
ज्ञानी गुरु – इन सबको उत्तम माना गया हैं |
द्विजों के लिये ‘नम: शिवाय’ के उच्चारण का विधान है |
द्विजेतरों के लिये अंत में नम: पद के प्रयोग की
विधि हैं अर्थात वे ‘शिवाय नम:’ इस मन्त्र का उच्चारण करें
| स्त्रियों के लिये भी कहीं-
कहीं विधिपूर्वक नमोऽन्त उच्चारण का
ही विधान हैं अर्थात वे भी ‘शिवाय
नम:’ का ही जप करें | कोई-कोई ऋषि ब्राह्मण
की स्त्रियों के लिये नम: पूर्वक शिवाय के जप
की अनुमति देते हैं अर्थात वे ‘नम: शिवाय’ का
जप करें | पंचाक्षर मन्त्र का पाँच करोड़ जप करके मनुष्य
भगवान् सदाशिव के समान हो जाता हैं | एक, दो,
तीन अथवा चार करोड़ का जप करनेसे क्रमश:
ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है |
अथवा मन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक-पृथक एक-
एक लाख जप करें अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ
ही जितने अक्षर हों उतने लाख जप करें | इस
तरह के जप को शिवपद की प्राप्ति करानेवाला
समझना चाहिये | यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक
सहस्त्र जप के क्रम से पंचाक्षर मन्त्र का दस लाख
जप पूरा कर लिया जाय और प्रतिदिन ब्राह्मण-भोजन
कराया जाय तो उस मन्त्र से अभीष्ट कार्य
की सिद्धि होने लगती हैं |
ब्राह्मण को चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रात:काल एक
हजार आठ बार गायत्री का जप करे | ऐसा
होनेपर गायत्री क्रमश:शिवका पद प्रदान
करनेवाली होती है | वेदमंत्रों
और वैदिक सूक्तों का भी नियमपूर्वक जप
करना चाहिये | वेदों का पारायण भी शिवपद
की प्राप्ति करानेवाला हैं, ऐसा जानना चाहिये |
अन्यान्य जो बहुत-से मन्त्र हैं., उनका भी
जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करें | इसप्रकार जो
यथाशक्ति जप करता हैं, वह क्रमश: शिवपद (मोक्ष)
प्राप्त कर लेता हैं | अपनी रूचि के अनुसार
किसी एक मन्त्र को अपनाकर मृत्युपर्यन्त
प्रतिदिन उसका जप करना चाहिये अथवा ‘ॐ’
इस मन्त्र का प्रतिदिन एक सहस्त्र जप करना चाहिये |
ऐसा करनेपर भगवान शिवकी आज्ञा से
सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती
है |
जो मनुष्य भगवान् शिवके लिये फुलवाड़ी या
बगीचे आदि लगता है तथा शिव के सेवाकार्य के
लिये मन्दिर में झाड़ने-बुहारने आदि की व्यवस्था
करता हैं, वह इस पुण्यकर्म को करके शिवपद प्राप्त कर
लेता हैं | भगवान शिवके जो काशी आदि क्षेत्र
हैं, उनमें भक्तिपूर्वक नित्य निवास करें | वह जड़, चेतन
सभीको भोग और मोक्ष देनेवाला होता है | अत:
विद्वान पुरुष को भगवान शिवके क्षेत्र में आमरण निवास
करना चाहिये | पुण्यक्षेत्र में स्थित बावड़ी,
कुआँ और पोखरे आदि को शिवगंगा समझना चाहिये | भगवान
शिवका ऐसा ही वचन हैं | वहाँ स्नान, दान और
जप करके मनुष्य भगवान शिवको प्राप्त कर लेता हैं | अत:
मृत्युपर्यन्त शिवके क्षेत्र का आश्रय लेकर रहना चाहिये |
जो शिव के क्षेत्र में अपने किसी मृत
सम्बन्धी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध,
सपिण्डीकरण अथवा वार्षिक श्राद्ध करता
हैं अथवा कभी भी शिव के
क्षेत्र में अपने पितरों को पिंड देता हैं, वह तत्काल सब
पापों से मुक्त हो जाता और अंत में शिवपद पाता है |
अथवा शिवके क्षेत्र में सात, पाँच, तीन या
एक ही रात निवास कर ले | ऐसा करनेसे
भी क्रमश: शिवपद की प्राप्ति
होती है |
लोक में अपने-अपने वर्ण के अनुरूप सदाचार का पालन
करनेसे भी मनुष्य शिवपद को प्राप्त कर
लेता है | वर्णानुकूल आचरण से तथा भक्तिभाव से वह अपने सत्कर्म का अतिशय फल पाता हैं, कामनापुर्वक किये हुए अपने कर्म के अभीष्ट फल को शीघ्र ही पा लेता हैं | निष्कामभाव
से किया हुआ सारा कर्म साक्षात शिवपद की
प्राप्ति करनेवाला होता है |
दिन के तीन विभाग होते है – प्रात:,
मध्यान्ह और सायान्ह | इन तीनों में
क्रमश: एक-एक प्रकार के कर्म का सम्पादन किया जाता हैं | प्रात:काल को शास्त्रविहित नित्यकर्म के अनुष्ठान का समय जानना चाहिये | मध्यान्हकाल सकाम- कर्म के लिये उपयोगी हैं तथा सायंकाल शाति- कर्म के उपयुक्त हैं, ऐसा जानना चाहिये |
इसीप्रकार रात्रि में भी समय का
विभाजन किया गया है | रात के चार प्रहरों में से जो बीच के दो प्रहर हैं, उन्हें
निशीधकाल कहा गया हैं | विशेषत:
उसी कालमें की हुई भगवान शिव
की पूजा अभीष्ट फल को
देनेवाली होती है – ऐसा जानकर
कर्म करनेवाला मनुष्य यथोक्त फलका भागी
होता है | विशेषत: कलियुग में कर्म से ही
फल की सिद्धि होती है | अपने-
अपने अधिकार के अनुसार ऊपर कहे गये
किसी भी कर्म के द्वारा शिवाराधन
करनेवाला पुरुष यदि सदाचारी हैं और पापसे
डरता है तो वह उन-उन कर्मों का पूरा-पूरा फल अवश्य
प्राप्त कर लेता हैं |

               - ॐ नम: शिवाय –

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